ये है चीना, अंग्रेजी में बोलते हैं Proso Millet.

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ये है चीना, अंग्रेजी में बोलते हैं Proso Millet. हरित क्रांति ने जिन मोटे अनाजों को निपटाया, उनमें से ये भी एक है. पहले बिहार में हमारे मगध में इसकी बड़े पैमाने पर खेती होती थी. अब इसका भी हाल मड़ुआ जैसा है. मडुआ फिर भी जितिया पर्व में जरूरत के कारण कुछ बचा है, पर इसका अस्तित्व संकट में ही बुझाता है.

नेट पर पढ़िएगा तो इसके फायदों की लिस्ट मजा ला देगी. विटामिन बी से लेकर मैग्नीशियम तक का शानदार स्रोत है यह. बाकी कुछ न भी हो तो सिर्फ ग्लूटेन फ्री होना ही इसे बहुत फायदे की चीज बना देता है. इसका आटा भी बनता है, जिससे रोटियां बनती हैं और इसे चावल की तरह भी पकाकर दाल के साथ खाया जाता है.

किसी भी कमॉडिटी के अस्तित्व के लिए बाजार सबसे जरूरी चीज है. जिसका बाजार होगा, उसका अस्तित्व रहेगा. जिसका बाजार जाएगा, उसका वजूद भी जाएगा. इंसानों पर भी यह फॉर्मूला लागू है... तमाम दुनियादारी इसी से तय होती है.

ऊपर मैंने हरित क्रांति का जिक्र इसलिए किया कि किसी भी परिघटना/परिवर्तन के दो पहलू होते हैं. हरित क्रांति का एक पहलू है कि इसने अनाज के मामले में हमें आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि निर्यातक बना दिया. दूसरा पहलू कि इसने तमाम फायदों वाले कई मोटे और देसी अनाजों को निपटाकर उसकी जगह पर बीमार करने वाला गेंहू थमा दिया. इसपर विस्तार से विमर्श हुआ है. गूगल बाबा की मदद लेकर सीधे मामले के सिद्ध पुरुषों की राय पढ़ी जा सकती है.

हरित क्रांति ने पहली चोट दी, लेकिन मामला यहीं से तय नहीं हो गया. उससे बड़ी जवाबदेही सरकार की. सरकार ने या तो इरादतन इनका बाजार खत्म किया या सबकुछ होता देखकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. इधर कुछ रोज से मिलेट क्रांति आई हुई है, पर अफसोस है कि क्रांति सिर्फ सरकारी है... असरकारी नहीं.

अब आज ही की बात बताते हैं. चीना की खेती हमारे यहां अभी भी हो रही थी, आगे शायद न हो पाए. पिछली बार की फसल में से जरूरत निकालने के बाद बचे माल का निपटारा करना था. भाव के चक्कर में बहुत दिनों से मामला टल रहा था. अभी भी थोक में जो भाव मिला, वो किलो के हिसाब से करीब 30 रुपये का बैठा. यहां आपको अनाज बेचने के लिए गल्ला (इधर अनाज खरीदने वाले व्यवसाय को गल्ला कहते हैं) पर ही जाना होगा. किसानों के पास यही विकल्प बेहतर है यहां, और वहां का भाव बता ही दिए. इस भाव को धान और गेंहू से तौल लीजिए. खेती की बताएं तो चीना उगाना बहुत मेहनत और लागत वाला काम है. उपज भी इसकी कम ही होती है. तो ऐसे में तो इसको उकन ही जाना है...यही नियति.
जय मूलनिवासी
#Nayak1

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