शिक्षा नीति बदलना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़
सच तो यही है कि देश की सरकारें कभी भी शिक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर गंभीर नहीं रही हैं. चाहे केन्द्र में कांग्रेस की सत्ता रही है या बीजेपी की. हाँ! अलबत्ता दोनों सरकारें नई शिक्षा नीति बनाकर शिक्षा का समूल नाश करने में आगे रही हैं. देश में तकरीबन 59 साल तक कांग्रेस का राज रहा है, लेकिन इन 59 सालों में कांग्रेस ने नई शिक्षा नीति लागू की और उसके माध्यम से शिक्षा का निजीकरण करने की शुरूआत की. नतीजा यह हुआ कि मूलनिवासी बहुजन समाज के बच्चे शिक्षा से दूर होते चले गए और शिक्षा का स्तर भी नीचे गिरता चला गया. वही काम बीजेपी सरकार कर रही है. असल में जब-जब इन दोनों पार्टियों की सरकारों ने शिक्षा सुधार के नाम पर नई शिक्षा नीति बनाई हैं तब-तब शिक्षा का सत्यानाश किया है.
इस बात का अंजादा सरकारी रिपोर्ट्स में दबे आंकड़ों से लगाया जा सकता है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर (2017 से जून 2018) की रिपोर्ट भारत में शिक्षा पर पारिवारिक सामजिक उपभोग के मुख्य संकेतक, जो नवंबर 2019 में जारी हुई, के आंकड़ो को देखें तो शिक्षा में ग्रामीण-शहरी क्षेत्र और महिला-पुरुष और क्षेत्रीय विषमताओं का एहसास होगा. गांव, जहां देश की 70 फीसदी जनसंख्या रहती है, वहां 15 साल से ऊपर की 41.2 फीसदी महिलाऐं निरक्षर हैं, तो 20.4 फीसदी प्राथमिक स्तर तक ही पढ़ाई कर पाती है. ग्रामीण पुरुषों में 22.2 निरक्षर हैं, तो 21.2 सिर्फ प्राथमिक स्तर पढ़े-लिखे हैं. सब जानते हैं कि गांव के स्कूल में प्राइमरी होना मतलब नाममात्र का साक्षर. इसका मतलब लगभग 60 फीसदी ग्रामीण महिलाओं और 42 ग्रामीण पुरुषों को आज भी लिखना पढ़ना नहीं आता है.
इस देश
में 90 फीसदी
बच्चे कॉलेज के स्तर तक आते-आते अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार
देश में 15 साल से
ऊपर की उम्र के सिर्फ 10.6 फीसदी लोग
ही स्नातक या उससे ऊपर तक पढ़े-लिखे हैं. ग्रामीण व्यक्तियों में यह प्रतिशत 5.7 है, तो शहरी व्यक्तियों में यह 21.7 है. वही ग्रामीण महिलाओं में यह 3.9 प्रतिशत है, तो पुरुषों में 7.4 प्रतिशत. अगर इन आंकड़ो को क्षेत्रीय और
सामाजिक आधार पर देखें, तो यह
विषमता और गहरी होती दिखेगी.
रिपोर्ट
के अनुसार 3 से 35 वर्ष के पुरुषों में पढ़ाई छोड़ने का
प्रमुख कारण आर्थिक है. 36.9 फीसदी
पुरुष किसी न किसी रोजगार में लगे होने के कारण, तो 24.3 फीसदी आर्थिंक तंगी के चलते, यानी कुल लगभग 61 फीसदी पुरुष आर्थिक कारणों से पढ़ाई छोड़
देते हैं. जबकि इसी सर्वेक्षण की 2014 की रिपोर्ट में यह आंकड़े क्रमशः 31 फीसदी और 23.6 फीसदी हैं. यानी आर्थिक कारणों से
स्कूल-कॉलेज न जा पाने वालों का प्रतिशत जो 2014 में 55 फीसदी था, वो 2018 में बढ़कर 61 फीसदी हो गया. वहीं, आर्थिक कारणों के अलावा लड़कियां घरेलू
काम और शादी होने के चलते पढ़ाई छोड़ देती हैं. लेकिन इस शिक्षा नीति में इस बात का
कोई जिक्र नहीं है कि मां-बाप आर्थिक रूप से कैसे सक्षम बने कि वो अपने बच्चों को
बिना किसी रुकावट के स्कूल भेज सकें. बल्कि इस नीति में ड्रॉप आउट से निपटने के
लिए इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने, काउंसलर और प्रशिक्षित कार्यकर्ता रखने और प्रवासी कामगारों के बच्चों के
लिए एनजीओ के माध्यम से स्कूल खोलने की बात है. जबकि, आज हालात यह है कि हर राज्य में वहां
की प्रादेशिक भाषा के सरकारी स्कूल बड़ी संख्या में बंद होते जा रहे है, चाहे हिंदी भाषी प्रदेश हो या कोई अन्य
भाषा बोलने वाला प्रदेश. सब जगह अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करवाने वाले निजी स्कूल
कुकरमुत्ते की तरह पैदा हो गए है. किसी भी सरकार को अपने इलाके की मातृ
भाषा/क्षेत्रीय भाषा/ स्थानीय भाषा का सही अंदाज नहीं है, उसकी पढ़ाई के लिए सामग्री और मानव
संसाधन तैयार करना तो बहुत ही दूर की बात है. इसमें एक और खास बात है कि इस नई
शिक्षा नीति में भारतीय संस्कृति और परपंरा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात
है. सब जानते है कि भारतीय जनता पार्टी और उसकी आरएसएस की इस बारे में क्या सोच
है. वे वैसे ही लंबे समय से शिक्षा के ब्राह्मणीकरण में लगे हैं, अब पूरा पाठयक्रम बदलने के नाम पर यह
आसानी से हो जाएगा.
बता दें कि सरकार आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर देश के दरवाजे अमेरिका और यूरोप के बड़े-बड़े निजी विश्वविद्यालयों के लिए खोलना चाहती है. इसलिए उन्हें न सिर्फ देश में अपने संस्थान खोलने की इजाज़त दे दी गई है, बल्कि उनके अनुरूप बदलाव किए गए हैं. इतना ही नहीं, सरकार पिछले दो सालों से यूजीसी का अस्तित्व खत्म करने में लगी है. इसके लिए सरकार ने हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया एक्ट, 2018 को मंजूरी भी दे दी थी. इसमें विश्वविद्यालयों को ग्रांट देने के अधिकार छीन लेने की बात थी. लेकिन यह संसद में पेश नहीं किया गया. अब इस नई शिक्षा नीति में हायर एजुकेशन ग्रांट काउंसिल को स्थापित करने की बात है. कुल मिलाकर इन संस्थाओ के जरिए स्वायत्तता देने के नाम पर आने वाले समय में उच्च शिक्षण संस्थानों को अपनी वित्तीय व्यवस्था खुद करने के लिए छोड़ दिया जाएगा. @Nayak1
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Changing Education Policy, Playing with the Future of the Country
The truth is that the governments of the country have never been serious
about improving the education system. Whether the Congress has been at the
center or the BJP. Yes! However, both the governments have been ahead in
eliminating the education by creating a new education policy. The Congress has
been ruling the country for almost 59 years, but in these 59 years, the
Congress implemented a new education policy and through it started the
privatization of education. As a result, the children of the indigenous Bahujan
Samaj went away from education and the standard of education also went down. The
BJP government is doing the same thing. In fact, whenever the governments of
these two parties have formulated a new education policy in the name of
education reform, then education has been annihilated.
According to
the report, the main reason for leaving studies in men between 3 and 35 years
is economic. Due to 36.9 per cent men engaged in some employment, 24.3 per cent
due to financial constraints, that is, about 61 per cent of the total men leave
for economic reasons. Whereas in the 2014 report of the same survey, these
figures are 31 percent and 23.6 percent respectively. That is, the percentage
of those who could not go to school and college due to economic reasons, which
was 55 percent in 2014, increased to 61 percent in 2018. At the same time, in
addition to economic reasons, girls leave school because of domestic work and
marriage. But in this education policy, there is no mention of how the parents
become financially capable to send their children to school without any
hindrance. Rather, the policy talks about strengthening infrastructure, keeping
counselors and trained workers and opening schools through NGOs for the
children of migrant workers. Whereas, today the situation is that in every
state, there are a large number of government schools of regional languages being closed, whether it is Hindi speaking state or any other
language speaking state. Private schools that teach English medium everywhere
have been born like cooks. Any government does not have a proper idea of the mother tongue / regional language / vernacular language
of its region, it is a distant thing to prepare materials and human resources
for its studies. There is another special thing in this that in this new
education policy there is a matter of incorporating Indian culture and
tradition in the curriculum. Everyone knows what the Bharatiya Janata Party and
its RSS think about it. They have been engaged in Brahmanisation of education
for a long time, now it will be easily done in the name of changing the entire
curriculum.
Let us know that in the name of making the government
self-sufficient, it wants to open the doors of the country to the big private
universities of America and Europe. Therefore, they have not only been allowed
to open their institutions in the country, but changes have been made to suit
them. Not only this, the government has been trying to end the existence of UGC
for the last two years. For this, the government had also approved the Higher
Education Commission of India Act, 2018. There was talk of taking away the
rights to grant grants to universities. But it was not introduced in
Parliament. Now there is talk of establishing Higher Education Grant Council in
this new education policy. Overall, higher educational institutions will be
left to make their own financial arrangements in the name of giving autonomy
through these institutions.@ Nayak1
शिक्षण धोरण बदलणे, देशाच्या
भवितव्याशी खेळणे
सत्य
हे आहे की देशातील सरकारे शिक्षण व्यवस्था सुधारण्याच्या बाबतीत कधीच गंभीर नव्हते.
मग केंद्रात कॉंग्रेसची सत्ता असो वा भाजपा. होय! तथापि, नवीन शिक्षण धोरण तयार करून शिक्षण नष्ट
करण्यात दोन्ही सरकार आघाडीवर आहेत. देशात सुमारे 59 वर्षे कॉंग्रेसपर्यंत राज्य करत आहेपण ही 59 वर्षे कॉंग्रेसमध्ये नवीन शिक्षण धोरण राबविले आणि त्यातूनच शिक्षणाचे
खाजगीकरण सुरू झाले. याचा परिणाम म्हणून आदिवासी बहुजन समाजातील मुले शिक्षणापासून
दूर गेली आणि शिक्षणाचे प्रमाणही खाली गेले. भाजपा सरकारही हेच करत आहे. खरं तर
जेव्हा जेव्हा या दोन पक्षांच्या सरकारांनी शिक्षण सुधारणेच्या नावाखाली नवीन
शिक्षण धोरण तयार केले आहे,
तेव्हा शिक्षणाचा नाश होतो.
शासकीय
अहवालात पुरलेल्या आकडेवारीवरून अंजदाचा अंदाज घेता येतो.75वा राष्ट्रीय नमुना सर्वेक्षण फेरी(2017 ते
जून 2018)भारतातील शिक्षणावरील कौटुंबिक सामाजिक
वापराचे मुख्य संकेतक, जे नोव्हेंबर 2019 शिक्षणामध्ये
जाहीर केलेल्या आकडेवारीवर नजर टाकल्यास ग्रामीण-शहरी भाग आणि शिक्षणामधील
स्त्री-पुरुष आणि प्रादेशिक असमानता लक्षात येईल. गाव जिथे देश 70 टक्के लोकसंख्या तेथे राहतात 15 वर्षाच्या वर 41.2 एक
टक्के महिला अशिक्षित असल्यास, 20.4 टक्के
केवळ प्राथमिक स्तरापर्यंत शिक्षण घेऊ शकतात. ग्रामीण पुरुषांमध्ये २२.२ अशिक्षित
आहेत, तर २१.२ फक्त प्राथमिक स्तरावर शिक्षित
आहेत. प्रत्येकाला हे माहित आहे की खेड्यातील शाळेत प्राथमिक असणे म्हणजे नाममात्र
साक्षर होणे. याचा अर्थ असा की ग्रामीण भागातील सुमारे 60 टक्के महिला आणि 42 ग्रामीण पुरुष अद्याप कसे लिहायचे आणि कसे
लिहावे हे त्यांना माहित नाही.
या
देशात 90 टक्के मुले महाविद्यालयीन स्तरावर येऊन
शिक्षण सोडतात. या अहवालानुसार, देशातील
15 वय फक्त 10.6
वर्षे पदवीपर्यंत किंवा त्यापेक्षा जास्त
लोकांपैकी केवळ काही टक्के लोक शिक्षित आहेत. ग्रामीण भागातील लोकांमध्ये 7.7 टक्के शहरी व्यक्तींमध्ये 21.7
आहे. हे ग्रामीण भागातील 9
टक्के, नंतर पुरुष 7.4
टक्के. प्रादेशिक आणि सामाजिक आधारावर
आपण या आकडेवारीकडे लक्ष दिल्यास ही असमानता अधिक खोल दिसेल.
कथितपणे
3 ते 35
वर्षे पुरुषांनी अभ्यास सोडण्याचे मुख्य कारण
म्हणजे आर्थिक. 36.9 टक्के जर पुरुष काही रोजगारात गुंतले असतील तर 24.3 टक्के आर्थिक अडचणींमुळे, म्हणजेच
एकूण 61 टक्के पुरुष आर्थिक कारणास्तव अभ्यास सोडतात. हे
सर्वेक्षण 2014 दरम्यान हा आकडा अनुक्रमे 31 टक्के अहवालात आहे आणि 23.6
टक्के हं. म्हणजेच, 2014 च्या आर्थिक कारणांमुळे ज्यांना
शाळा-महाविद्यालयात प्रवेश घेता आले नाही, त्यांची
टक्केवारी मध्ये 55 टक्के 2018 होता वाढवून 61
टक्के केले त्याच वेळी, आर्थिक कारणांव्यतिरिक्त, मुली घरगुती काम आणि लग्नामुळे शाळा सोडतात.
परंतु या शैक्षणिक धोरणात पालक कोणत्याही अडथळ्याशिवाय मुलांना शाळेत पाठविण्यास
आर्थिक सक्षम कसे होतात याचा उल्लेख नाही. त्याऐवजी हे धोरण पायाभूत सुविधा मजबूत
करणे, समुपदेशक आणि प्रशिक्षित कामगार ठेवणे
आणि स्थलांतरित कामगारांच्या मुलांसाठी स्वयंसेवी संस्थांमार्फत शाळा उघडण्याविषयी
बोलते आहे. तर, आज परिस्थिती अशी आहे की प्रत्येक
राज्यात हिंदी भाषिक राज्य असो किंवा इतर कोणत्याही भाषा बोलणारे राज्य असो, प्रादेशिक भाषांची मोठ्या प्रमाणात सरकारी शाळा
बंद आहेत. सर्वत्र इंग्रजी माध्यम शिकविणारी खासगी शाळा स्वयंपाकांसारखी जन्माला
आली आहे. कोणत्याही सरकारला मातृभाषा / प्रादेशिक भाषा / आपल्या प्रदेशातील
स्थानिक भाषा याबद्दल योग्य कल्पना नसते, अभ्यासासाठी
साहित्य आणि मानवी संसाधने तयार करणे ही दूरची गोष्ट आहे. यामध्ये आणखी एक विशेष
बाब आहे की या नव्या शिक्षण धोरणात भारतीय संस्कृती आणि परंपरा अभ्यासक्रमात
समाविष्ट करण्याचा विषय आहे. भारतीय जनता पार्टी आणि त्याचे आरएसएस याबद्दल काय
विचार करतात हे सर्वांना माहिती आहे. ते बर्याच काळापासून शिक्षणाच्या ब्राह्मणीकरणात
गुंतले आहेत, आता संपूर्ण अभ्यासक्रम बदलण्याच्या
नावाखाली हे सहज केले जाईल.
आम्हाला
कळू द्या की सरकारला स्वावलंबी करण्याच्या नावाखाली अमेरिका आणि युरोपच्या मोठ्या
खासगी विद्यापीठांसाठी देशाचे दरवाजे उघडायचे आहेत. म्हणूनच, त्यांना देशात केवळ त्यांच्या संस्था उघडण्याची
परवानगी नाही, परंतु त्यांच्या अनुषंगाने बदल करण्यात
आले आहेत. एवढेच नव्हे तर गेल्या दोन वर्षांपासून सरकार यूजीसीचे अस्तित्व
संपवण्याचा प्रयत्न करीत आहे. यासाठी सरकारने उच्च शिक्षण आयोग अधिनियम, २०१ 2018
देखील मंजूर केले होते. विद्यापीठांना अनुदान देण्याचा अधिकार काढून घेण्याची
चर्चा होती. पण संसदेत याची ओळख झाली नव्हती. आता या नव्या शिक्षण धोरणात उच्च
शिक्षण अनुदान परिषद स्थापन करण्याची चर्चा आहे. एकंदरीत या संस्थांच्या
माध्यमातून स्वायत्तता देण्याच्या नावाखाली उच्च शैक्षणिक संस्था स्वतःची आर्थिक
व्यवस्था करण्यास सोडल्या जातील.@ Nayak1
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