#वो_ग्यारह_दिन....

0
#वो_ग्यारह_दिन....

भारत के इतिहास में, सैकड़ों वर्षों के अज्ञानता के अंधकार में, एक दीप जगमगाया डॉ. आंबेडकर के, जहाज से कदम धरती पर रखते ही एक तूफान के आने की आहट होने लगी। मुम्बई से रेल में बैठकर, बड़ौदा के #महाराज_सयाजीराव गायकवाड़ के साथ किए गए अनुबंध को पूरा करने का प्रयास करने के लिए, डॉ. आंबेडकर बड़वा के लिए चल पड़े। ज्यों बचपन में मिले, अपमानजनक व्यवहार के गहरे जख्मों पर ध्यान जाता तो उनके दर्द की अनुभूति को नहीं भुला पाते तो कभी विदेश के स्वच्छ व स्वतंत्र वातावरण में रह कर, अपने को धन्य पाते मन में सोचने लगे कि "मैं भी अपने ज्ञान से बड़ौदा के महाराज को दिए गए वचन को निभाऊंगा तथा प्रासनिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करके जातीय वैमनस्य को समाप्त करने का प्रयास करूंगा।" अनेकों अस्मान अपने मन में संजोए डॉ. आंबेडकर, निरन्तर बड़ौदा की ओर बढ़े जा रहे थे। अपने छात्र जीवन से निकलकर बड़ौदा की सेना में सचिव की हैसियत से काम करने के गौरव से, मन बड़ा ही प्रफुल्लित हो रहा था। कभी अपने द्वारा अर्जित ज्ञान से समाज को बदलने का ख्यान आता तो कभी पत्नी रमा के त्याग और समर्पण को समझ, उसे भी सुख सुविधा देने का विचार मन में उठता। अपने पुत्र यशवंत का ख्याल करते तो, कभी बचपन में स्कूल के दौरान हुए अमानवीय जुल्म को याद कर सिहर उठते। अभी मन में यह विचार.... चल ही रहा था कि, एक लम्बी सीटी देकर, गाड़ी धीरे-धीरे रुक गई। यह बड़ीदा का रेलवे स्टेशन था। मानों सैकड़ों वर्षों से इसे भी बाबा साहब के आने का इन्तजार था। स्टेशन से उतरकर डॉ. आंबेडकर तेज कदमों से, अपने नये दायित्व को निभाने के लिए आगे बढ़ते हैं। उधर डॉ. आंबेडकर के आने से पहले ही, उनके कदमों की आहट से बड़ौदा में किसी अनजाने भय की आशंका ने कदम रख दिये थे। सैकड़ों वर्षों से मानवता को कलंकित करते हुए, अमानवीय वर्गीकरण के तहत खड़ा हुआ, जातीय अहंकार लड़खड़ाने लगा था। ब्राह्मणों को चिंता, अपने ब्राह्मणी दुर्ग को बचाने की हो रही थी। वो सोच रहे थे कि "विदेश से पढ़ कर आ रहा अछूत, हमें आदेश करेगा! हमें उसका आदेश मानना होगा! एक शूद्र और वह भी अतिशूद्र, अछूत, ब्राह्मण को आदेश करेगा! ब्राह्मण उसका अनुपालन करेगा! यह तो हमारा घोर अपमान होगा। शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन होगा। आने वाली हमारी संतानें हमें कायर और कमजोर मानेंगी। सैकड़ों वर्षों की मजबूत, ब्राह्मण संस्कृति पर एक व्यक्ति भारी पड़ रहा है। यह तो हमारे लिए, डूबकर मरने की बात होगी। एक अछूत के कार्यालय में कदम रखते ही हमारी पवित्रता खण्डित हो जाएगी। ऐसी कल्पना ही असहनीय है। हमें किसी भी सूरत में उसे यहां आने से रोकना होगा।" कोई कहता, "मैं तो नौकरी ही छोड़ दूंगा। नौकरी से ज्यादा महत्वपूर्ण मेरे लिए, धर्म को बचाना है। मैं अछूत के साथ कार्य करके कलंकित नहीं होना चाहता। मेरा सम्मान केवल मेरे ब्राह्मण बने रहने में ही है।" कोई कह रहा था, "मैं अपनी मेज कुर्सी अलग कमरे में रख लूंगा।" कोई कह रहा था, "मैं तो गौ-मूत्र साथ लेकर आया हूं, एक अछूत की परछाई से अपवित्र होने के कारण, गौ मूत्र से अपने आप को बचाने का प्रयास करूंगा।" "क्या करें, घोर कलयुग आ गया। बड़ौदा के महाराज ने भी हमारे रास्ते में कांटे बो दिए। मजबूरी है।" इस प्रकार डॉ. आंबेडकर के कार्यालय के सवर्ण कर्मचारी, आपस में वार्तालाप कर रहे थे। सभी के सभी अपना-2 काम छोड़कर एक अछूत से अघोषित युद्ध लड़ने जैसी योजना पर विचार कर रहे थे। गौ मूत्र का प्रबंध कर लिया गया था। किस को क्या करना था, यह पहले से ही सुनिश्चित हो चुका था, जिस कुर्सी पर डॉ. आंबेडकर को बैठना था, उसे कार्यालय के अन्तिम कोने में डाला जा चुका था।......
जय मूलनिवासी 

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)
To Top