जब वह कठोर हो जाती है तो बदतमीज हो जाती है।

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हां कुछ स्त्रियां हो जाती है... स्त्रियों से ज्यादा कोमल पुरुषों से ज्यादा कठोर.. जीवन में एक नालायक शराबी और जुआरी या किसी और विसंगति से घिरा हुआ पुरुष आ जाता है.. "चाहे वह पिता पति या  पुत्र के रूप में ही क्यों ना हो.
फिर वो न जाने कितने मौन अंतर्द्वंद युद्ध झेलती है अपने घर और बाहर के हालातो से.. 

किसी भी औरत के अंदर अगर एक बुराई हो उसके ससुराल वाले तुरंत कहते हैं,इसके मायके पहुंचा दो जब वही बुराई उसके पति के अंदर होती है तो कहा जाता है... मायके ससुराल दोनों की तरफ से समझौता करो किस्मत है ...जीवन है ...आखिर क्यों??

जब एक 25 से 30 साल का लड़का... जिसके 50 - 55 की माता पिता भी ठीक ना कर सके... उसको 20 से 25 साल की आई हुई लड़की की सुपुर्द कर दिया जाता है और यह कहा जाता है कि,हां यह सुधर जाएगा और सुधार की अवस्था के अंतहीन इंतज़ार में तमाम उम्र वह जीवन बिता देती है.. 
कुछ चीज ऐसी है,जिस इंसान शायद कभी नहीं उभर पाता और न जाने कितनों की ,कितनी खुशियां और कितने सपने खा जाता है और इन सब चीजों को लेकर एक लड़की अपने परिवार की खुशियों को लेकर.. दुनिया में उतरती है हालातो का सामना करना के लिए क्योंकि वह हार नहीं मानती उसे समय बाहर की यह शरीफ दुनिया गिद्ध की नजर से उसको देखते है..जब वह कठोर हो जाती है तो बदतमीज हो जाती है और अगर कोमल हो जाती है तो उसका फायदा उठाते हैं..

स्त्री नहीं कहती ... वह लड़ती है... वह सहती है और खड़ी रहती है बिना किसी को अपने दुख दर्द को बताएं.. उन डरपोक या गैरजिम्मेदार  पुरुषों की तरह बहाने नहीं बनाती... अपनी जिम्मेदारियां से नहीं भागती...ये नहीं कहती कि... मैं थक गई हूं .. अपने मानसिक शारीरिक हालातो से लड़ती हुई..नहीं कहती मुझे आराम चाहिए ।। स्त्री नहीं कहती..मेरे सिर में दर्द है इसलिए मुझे पैग लगाना है.....वह अपने अपने बच्चों की और कभी-कभी उसे पुरुष के परिवार के बीच जिम्मेदारी उठा कर चलती है.. स्त्री महान नहीं कहलाना चाहती...मगर स्त्री  होना आसान नहीं है. स्त्री का एक नाम संघर्ष है यह होना ही संघर्ष है.

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