बात 1965 की है। सुघ ( हरियाणा ) से मिट्टी का बना हुआ खिलौना मिला है। फिलहाल यह राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में है। एक बालक गोद में स्लेट लिए बारहखड़ी लिख रहा है। वह बाएँ हाथ से स्लेट पकड़े हुए है तथा उसके दाएँ हाथ की ऊँगली एक अक्षर के नीचे है। उसका सिर टूटा हुआ है। लेकिन काम की चीजें बची हुईं हैं।
बालक धम्म लिपि में बारहखड़ी लिख रहा है। वह स्लेट पर बारहखड़ी के 12 स्वरों को चार बार दोहराया है। इसलिए स्लेट पर अंकित कुछेक अक्षरों के मिट जाने के बावजूद भी स्पष्ट हो जा रहा है कि उसने अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं एवं अः लिखा है। कुल मिलाकर उसने 12 स्वर लिखे हैं। इन्हीं 12 स्वरों की मात्राओं के कारण इसे बारहखड़ी कहते हैं।
संस्कृत के ऋ, ॠ और लृ बारहखड़ी में नहीं आते हैं। कारण कि ये बाद में जोड़े गए हैं। जिस जमाने में यह बालक इन स्वरों को लिख रहा है, उस जमाने तक हमारी वर्णमाला में ऋ, ॠ और लृ का विकास नहीं हुआ था। इसीलिए वह इन्हें नहीं लिख रहा है। तब ऋग्वेद, ऋषि जैसे शब्दों की लेखन - कला मौजूद नहीं थी।
आइए, अब जानते हैं कि यह खिलौना किस काल का है। ईसा से तकरीबन दो सौ साल पहले हरियाणा और पंजाब में सुगन राज्य था। सुगन राज्य की राजधानी सुघ ( स्त्रुघ्न ) में थी। ह्वेनसांग ने बड़े ही विस्तार से सुघ राज्य का वर्णन किया है। तब वहाँ 100 बुद्ध विहार, 5 संघाराम और 1000 बौद्ध भिक्खु थे। अनेक स्तूप बने थे। सुघ के दक्षिण - पश्चिम में अशोक का बनवाया स्तूप था और इसके दाएँ - बाएँ 10 स्तूप और बने थे।
इतिहासकारों ने इस खिलौने को शुंग काल का माना है, जबकि यह खिलौना सुगन काल का है। इसी सुगन वंश में राजा धनभूति हुए, जिन्होंने भरहुत स्तूप का सिंहद्वार और रेलिंग बनवाए थे। इतिहासकारों ने भरहुत स्तूप के पूरबी सिंहद्वार पर लिखा " सुगनं रजे " के " न " पर अंकित बिंदु को " सु " पर ट्रांसफर कर दिया है। फिर इसे " सुंग " बना लिया है और ऐसी गलती कर इतिहासकारों ने भरहुत स्तूप के सिंहद्वार और रेलिंग को बनवाने का श्रेय शुंग राजाओं को दे दिया है।