हिन्दू-नारी का उत्थान और पतन इसका जिम्मेदार कौन है ?

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हिन्दू-नारी का उत्थान और पतन इसका जिम्मेदार कौन है ?
महाबोधि नामक पत्रिका के मार्च 1950 ईसवी के अंक में लामा गोविन्द का एक लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख का शीर्षक था. "हिन्दू तथा बौद्ध धर्म में नारियों की स्थिति।" लामा गोविन्द ने यह लेख ईव्ज वीकली' नामक एक पत्रिका के 21 जनवरी 1950 ईसवी के अंक में प्रकाशित उस लेख के उत्तर में लिखा था, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि भारत में नारियों के पतन का मुख्खा कारण भगवान् बुद्ध की शिक्षाएं थीं। लामा गोविन्द ने एक सच्चे बौद्ध धर्मावलम्बी की भांति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए इस आरोप का प्रबल खंडन किया।

आरोपों के खण्डन-मण्डन का यदि अकेला प्रसंग होता, तो कोई बात न थी। परन्तु ऐसे आरोप बहुधा ही, 'ईब्ज वीकली' के लेखक की अपेक्षा कहीं, अधिक ख्याति प्राप्त अधिकारी एवं विद्वानों द्वारा लगाये जाते हैं। अतः यह आवश्यक प्रतीत होता है कि बात की तह तक पहुंचकर आरोप के आधार की जांच की जाय। चूंकि यह आरोप गम्भीर और कलंकित करने वाला है, इसकी और अधिक छानबीन किये जाने का, स्वागत ही किया जायगा, ऐसी मुझे आशा है।

भगवान् बुद्ध पर लगाये जाने वाले इस आरोप के दो ही आधार हो सकते हैं-

पहला आधार तथागत का वह उत्तर है, जिसे उन्होंने अपने शिष्य आनन्द के प्रश्न करने पर दिया था। यह प्रश्नोत्तर महापरिनिर्वाण
 सूत्र के पांचवें अध्याय में इस प्रकार हैं-

आनन्द के प्रश्न और तथागत के उत्तर

आनन्द-भगवन् स्त्रियों के साथ हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए ?

तथागत-अदर्शन (उन्हें देखो मत)।

आनन्द-भगवन् यदि हमें उन्हें देखने की विवशता ही आ पड़े, तो क्या करना चाहिए ?

तथागत-असंलाप (उनसे बोलो मत)।
आनन्द-और भगवन्, यदि वे ही हमसे बोलने लगें, तो ?
तथागत-तो फिर आनन्द, शील-पालन में सतर्क रहकर बात करो।
महापरिनिर्वाण सूत्र के इस प्रसंग के अस्तित्व से तो इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि उस सूत्र के उपलब्ध संस्करणों में यह प्रसंग मौजूद है। प्रश्न केवल यह रह जाता है कि यदि इस प्रसंग को आरोप का आधार बनाया जाता है, तो क्या यह आवश्यक नहीं है कि इस बात की छान-बीन की जाय कि क्या यह प्रसंग मौलिक है अथवा कालान्तर में भिक्खुओं द्वारा प्रक्षिप्त किया हुआ है ?

आज के सूत्रपिटक हमें, बौद्ध चिन्तन-शैली के लिए एकदम अपरिचित एवं अकल्पित, पुराण-पन्थी मान्यताओं से भरे दिखाई देते हैं। इनमें मूल विचारों को ब्राह्मणशाही ढंग से इस प्रकार तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है कि जो लोग बौद्ध-शिक्षाओं के तत्त्व-ज्ञान को जानते हैं, उन्हें उपलब्ध सूत्रपिटक देखकर आश्चर्य होता है।

डॉ. रीज डेविड्स ने भी इस प्रकार आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है-

"सूत्रपिटक की पंक्तियों में गौतम बुद्ध ढूंढे से भी नहीं मिलते। बुद्ध के कथन में, जाने-अनजाने में, कितना मिश्रण हुआ है, कहा नहीं जा सकता। इनमें समय-समय पर परम्परागत कण्ठस्थ रखने वालों द्वारा, शिष्यों को पढ़ाते व रटाते समय आचार्यों द्वारा तथा विभिन्न सम्पादन कर्त्ताओं द्वारा (जिन्होंने सदियों पूर्व भाषण के रूप में कही गई बातों को लेखबद्ध करने का प्रयास किया) मनमानी मिलावट की जाती रही है। और इन मिलावट करने वालों की विशेषता यह थी कि ये परम्परा से कण्ठस्थ रखने वाले आचार्य तथा सम्पादन समाज के अन्य वर्गों से भिन्न था। अतः इनके अपने विचारों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। ऐसी स्थिति में एक पाठक को इन्हें पढ़ते समय यह सोचना पड़ेगा कि इनमें किसी महापुरुष के मुख से जो कुछ कहलाया गया है, उत्तमें कितना अंश वास्तव में उसने कहा होगा, और कितना अंश इन मिलावट-कर्ताओं ने जबरदस्ती उससे कहलवाया है।"
इस प्रकार कुछ अन्य तथ्य भी इस शंका की पुष्टि करते हैं की तथागत और आनन्द का उक्त प्रश्नोत्तर भिक्खुओं द्वारा कालान्तर में प्रक्षिप्त किया हुआ है। जिसमें प्रथम तो यही बात है कि तथागत के निर्वाण-प्राप्ति के चार सौ वर्षों बाद तक तो सूत्रपिटक अलिखित मौखिक ही रहा। दूसरे यह कि जिन्होंने इसका संपादन किया, वे साधु-सन्यासी थे, और इसका सम्पादन व संकलन उन्होंने भिक्खु जीवन को दृष्टि में रखकर ही किया। चूंकि भिक्खु जीवन में ब्रह्मचर्य एक अभीष्ट आदर्श है, तथा इस सम्बन्ध में भगवान् का आदेश अपरिहार्य है, अतः भगवान् के मुख से ऐसे नियम अथवा आदर्श का कहलवाना सूत्रपिटक के एक साधु संकलन-कर्ता के लिए स्वाभाविक ही रहा होगा।

इसके अतिरिक्त निम्नलिखित दो अन्य तथ्य भी उपर्युक्त शंका की पुष्टि करते हैं-

(1) इस सूत्र की भूमिका में दी गई सारिणी (धीमती डेविड्स द्वारा सम्पादित एस.बी.बी.सीरीज के दीघनिकाय भाग 2 के पृष्ठ-संख्या 72 को देखने से यह विदित होता है कि इस सूत्र में पाये जाने वाले बहुत से प्रसंग दूसरे सूत्रों में भी पाये जाते हैं-परन्तु हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि यह प्रसंग अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता।

(2) दूसरे इस सूत्र की भूमिका के (धीमती डेविड्स द्वारा प्रकाशित एस.बी.ई. के खण्ड ग्यारह में) पृष्ठ 38 पर आये उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि इस सूत्र का कोई चीनी संस्करण भी है, और उस चीनी संस्करण में इस प्रसंग विशेष का नामो-निशान तक नहीं है।
आइए, अब हम और गहराई में जाकर सम्भावना के आधार पर इसकी जांच करें। क्या आनन्द द्वारा ऐसे प्रश्न पूंछे जाने के कोई कारण या स्थिति विद्यमान थी ? और क्या यह प्रश्नोत्तर स्त्रियों के सम्बन्ध में तथागत के सर्वविदित विचारों व व्यवहारों के अनुकूल था ? कदापि नहीं। ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि न आनन्द ने कभी ऐसे प्रश्न पूंछे होंगे और न तथागत ने कभी ऐसे उत्तर ही दिये होंगे। इन पिटकों में ही भगवान् बुद्ध तथा आनन्द के स्त्रियों के प्रति ऐसे विचारों व व्यवहारों का उल्लेख पाया जाता है, जो इस प्रकार के प्रश्नोत्तर की सम्भावना को निर्मूल कर देता है।
आनन्द को ऐसे प्रश्न पूछने की आवश्यकता भी थी या नहीं ? इस संदर्भ में यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा कि महापरिनिर्वाण सूत्र के उसी अध्याय में भगवान् बुद्ध ने आनन्द के गुणों की प्रसंशा करते हुए यह कहा है कि उसे सब कितना प्रेम करते थे। यहां केवल दो गाथाओं का आशय दिया जा रहा है-

(16) "बन्धुओ ! आनन्द में चार आश्चर्यजनक महान गुण हैं। जब भी संघ के बन्धु आनन्द के पास आकर उसका दर्शन करते हैं, तो वे आनन्द-विभोर हो जाते हैं। और जब आनन्द उन्हें सत्य का उपदेश देते हैं, तो उसे सुनकर उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता है, और जैसे ही आनन्द मौन हो जाते हैं, संघ-समुदाय उदास हो जाता है।"

"और जब भी संघ की बहनें (भिक्खुणियां) अथवा अन्य श्रद्धालु बहनें आनन्द के दर्शन करती हैं तथा आनन्द उन्हें सत्य का उपदेश देता है, तो वे उसे सुनकर आनन्द-विभोर हो जाती हैं; और जैसे ही आनन्द मौन धारण कर लेता है, बहनें भी उदास हो जाती हैं।"
इन गाथाओं से स्पष्ट है कि न केवल संघ की वरन् अन्य श्रद्धालु स्त्रियों से भी मिलना आनन्द के लिए सामान्य बात थी। वह न केवल उनसे मिलता ही था, अपितु उनसे वार्तालाप भी करता था।
तो फिर भला वह ऐसा प्रश्न क्यों करता ? दूसरी ओर तथागत भी जानते थे कि आनन्द स्त्रियों से मिलता हैं, और इससे पूर्व उन्होंने इस पर कोई आपत्ति भी नहीं की। तो फिर इस प्रसंग में ही उन्होंने स्त्रियों से किसी प्रकार का सम्पर्क वर्जित क्यों किया ? इस प्रकार यह प्रसंग अपने संदर्भ में इतना अस्वाभाविक सिद्ध होता है कि इसके

कालान्तर में प्रक्षिप्त' होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता।

आनन्द के जीवन में एक दूसरा प्रसंग भी ऐसा आता है जो महापरिनिर्वाण सूत्र के उक्त प्रश्नोत्तर प्रसंग को स्थिति के बिलकुल विपरीत निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। जैसा कि सर्व-विदित है कि आनन्द के जीवन-काल में हुई प्रथम बौद्ध संगीति में आनन्द पर पांच आरोप लगाये गये थे। ये आरोप निम्न थे-

1. आनन्द को तथागत से पूछना चाहिए था कि विनय पिटक के

1. सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान साहित्य वाचस्पति भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने अनुवादक

से वार्तालाप के समय इस प्रसंग की एक दूसरी ही मौलिक व्याख्या की है।

उनका कहना है कि यदि इस प्रसंग को प्रक्षिप्त न भी माना जाय तो भी भगवान युद्ध  पर लगाया जाने वाला आरोप मिथ्या सिद्ध हो जाता है। इस प्रसंग में भगवान बुद्ध ने यह बिलकुल नहीं कहा कि हमें स्त्रियों से कोई सम्पर्क रखना ही नहीं चाहिए। आनन्द से हुए प्रश्नोत्तर में तथागत का अभिप्राय केवल इतना था कि हमें बिना जरूरत स्त्रियों की संगति में नहीं रहना चाहिए और भारतीय संस्कृति का भी यही तकाजा है। यह उपदेश गृहस्थ और सन्यासी दोनों के लिए व्यवहार्य एवं कल्याणकारी है। यदि तथागत का अभिप्राय दूसरा होता, तो वे आनन्द के आगे के प्रश्नों का भी एक ही उत्तर देते कि नहीं, हमें किसी दशा में उनसे कोई सम्पर्क ही नहीं रखना चाहिए।

आनन्द ने पूछा था- "हमें' स्त्रियों के साथ.।" यहां 'हमें शब्द का तात्पर्य "हम मिक्खुओं" से है, और भगवान् का "अदर्शन-असलाप उत्तर भी भिक्खुओं के लिए है, समस्त मानव-समाज के लिए नहीं। जो गृहत्यागी विरक्त भिक्खु है, उसे स्त्रियों को देखने और उनसे बातें करने का क्या प्रयोजन (अनुवादक)। जिन अंशों को अपर्याप्त समझकर उन्होंने संघ से उनमें आवश्यक संशोधन कर लेने को कहा, वे अंश कौन से थे ? परन्तु आनन्द ने ऐसा नहीं किया।

2. तथागत की चीवर (परिधान) सिलते समय आनन्द ने उस पर अपना पैर रख दिया था।

3. तथागत के परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद आनन्द ने सर्वप्रथम एक महिला (मल्लिक) को श्रद्धाभाव अर्पित करने का अवसर दे दिया, जिसके कारण तथागत का शरीर उस महिला के आंसुओं से अपवित्र हो गया।

4. आनन्द ने तथागत से यह अनुरोध नहीं किया कि वे एक जीवन-चक्र पूरा होने तक जीवित रहें।

5. संघ में स्त्रियों को प्रवेश कराने के लिए आनन्द ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।

आनन्द ने इन आरोपों को पूर्णतः स्वीकार कर लिया, ऐसा उल्लेख मिलता है। इस प्रसंग में आरोपों को स्वीकार या अस्वीकार करने का उतना महत्त्व नहीं है, जितना स्वयं आरोप संख्या 3 का है। यदि यह आरोप सही है, तो क्या यह सम्भव माना जा सकता है कि आनन्द तथागत के आदेशों की अवहेलना करके एक महिला को भगवान् बुद्ध का पार्थिव शरीर स्पर्श करने की अनुमति दे देता। महापरिनिर्वाण-सूत्र के इस प्रश्नोत्तर-प्रसंग के अनुसार मृत्यु के कुछ ही क्षण पूर्व भगवान् बुद्ध ने आनन्द को स्त्रियों के "अदर्शन-असंलाप" की आज्ञा दी थी, और थोड़ी ही देर बाद महिला द्वारा तथागत के शरीर-स्पर्श की घटना घटी। तो क्या आनन्द इतनी जल्दी भगवान् का आदेश भूल गया या उसने आदेश का उल्लंघन करके ऐसा होने दिया ? इन प्रश्नों का उत्तर प्रत्येक दशा में नकारात्मक ही मिलता है। तो फिर इस नकारात्मक उत्तर से क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि भगवान् बुद्ध ने तथाकथित प्रश्नोत्तर में स्त्रियों के प्रति वैसा व्यवहार किये जाने का परामर्श कभी नहीं दिया होगा। अन्यथा उनका आनन्द जैसा शिष्य उनके परामर्श के विपरीत आचरण कभी नहीं होने देता। अतः तर्क यही कहता है कि स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले व्यवहार के लिए तथागत ने कभी परामर्श नहीं दिया।

अब इस प्रसंग की जांच तथागत के पक्ष में भी कर लेनी चाहिए। क्या तथागत के लिए आनन्द को उक्त परामर्श देना उनके स्वभाव व आचरण के अनुकूल था ? इस प्रश्न के लिए हमें स्त्रियों के प्रति तथागत के अपने आचरण का अध्ययन करना होगा। आनन्द को दिये गये तथाकथित परामर्श के अनुसार क्या तथागत स्वयं स्त्रियों से मिलने में परहेज करते थे ? देखिए तथ्य व इतिहास इस सम्बन्ध में क्या साक्षी देते हैं-

इस सम्बन्ध में दो उदाहरण तुरन्त मस्तिष्क में उभरकर हमारे सामने हैं। इनमें पहला विशाखा का है। विशाखा भगवान् बुद्ध के अस्सी प्रमुख शिष्यों में से थी, जिसे 'प्रधान दायिका' की पदवी प्रदान की गई थी। क्या तथागत के विहार में प्रविष्ट हुए बिना, तथा उनके निकट जाकर उनके उपदेश सुने बिना ही विशाखा, प्रधान शिष्या बन गई ? यदि नहीं तो क्या आनन्द को दिये गये उपदेश के अनुसार स्वयं तथागत ने विशाखा के साथ वैसा ही व्यवहार किया ? और क्या इस उपदेश के अनुकूल, विशाखा के मठ में पहुंचने पर अन्य भिक्खु वहां से उठकर चले गये।

दूसरा उदाहरण वैशाली नगर की अम्बपाली का है। अम्बपाली अतीव सुन्दरी तथा राजनर्तकी थी। वह स्वयं तथागत के पास गई थी और उन्हें भिक्खुओं सहित अपने घर भोजन हेतु आमंत्रित किया था। क्या भगवान् बुद्ध तथा भिक्खुओं ने उससे कोई परहेज किया ?
 विशाखा के जीवन से संबद्ध एक घटना प्रत्युत उन्होंने लिच्छवियों का निमंत्रण स्वीकार न करके अम्बपाली को अनुगृहीत करना अधिक उचित समझा और उसके घर जाकर भोजन ग्रहण किया। इस पर लिच्छवियों ने अपने को अपमानित भी अनुभव किया, पर तथागत ने इसकी परवाह नहीं की।

इसी प्रकार के अन्य उदाहरणों की भी कमी नहीं है। मज्झिम निकाय भाग दो के 'नन्दकोवाद सूत्र' से हमें पता लगता है कि जब तथागत श्रावस्ती में ठहरे हुए थे, तो महाप्रजापति गौतमी पांच सौ स्त्रियों को लेकर उनसे धर्म और शील का उपदेश लेने पहुंची थीं, तो क्या उस समय भगवान् बुद्ध वहां से भाग खड़े हुए थे ?

संयुक्त निकाय भाग एक हमें बताता है कि वैशाली-प्रवास के समय पज्जुन की लड़की कौकनन्द तथागत के पास उस समय पहुंची थी जब रात्रि के कई प्रहर बीत चुके थे। महाराजा प्रसेनजित की रानी मल्लिका के, भगवान् के उपदेश सुनने के लिए जब तब उनके पास जाने के उल्लेख भी पिटकों में यत्र-तत्र भरे पड़े है।

इन सब उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् बुद्ध, स्त्रियों से परहेज नहीं करते थे और न स्त्रियां ही उनके पास जाने से डरती या संकोच करती थीं।

यह सही है कि भगवान् बुद्ध भिक्खुओं को साधारण श्रद्धालुओं के परिवारों में जाने की आदत न डालने का परामर्श दिया करते थे। क्योंकि स्त्रियों के अधिक सम्पर्क से पुरुषों में आने वाली कमजोरी की संभावना से वे परिचित थे। परन्तु ऐसा नहीं था कि उन्होंने परिवारों में जाने की बिलकुल मनाही की हो या स्त्री मात्र के लिए कभी कोई हीनता का भाव प्रदर्शित किया हो।

इसी प्रकार यह भी सही है कि भगवान् बुद्ध ब्रह्मचर्य-पालन के कट्टर समर्थक थे, और भारी हृदय से वे यह स्वीकार किया करते थे कि "नारी ब्रह्मचर्य जीवन के लिए अभिशाप है।'' इसके बावजूद उनका उपेदश क्या था ? क्या उन्होंने स्त्रियों से प्रत्येक प्रकार का सम्पर्क वर्जित किया था ? नहीं, उन्होंने कभी ऐसा निषेध नहीं किया। इसके विपरीत उन्होंने भिक्खुओं से कहा कि जब भी उन्हें किसी स्त्री से मिलने का अवसर प्राप्त हो, वे उन्हें स्थिति के अनुसार अपनी माता-बहन या पुत्री के रूप दे देखें।

भगवान् बुद्ध के प्रति स्त्री-विरोध का आरोप लगाने वाले, आरोप के दूसरे आधार के रूप में उनके इस आदेश को प्रस्तुत कर सकते हैं कि पहले तो उन्होंने भिक्खुणिओं के संघ-प्रवेश का ही विरोध किया और बाद में भिक्खुणीसंघ बनाने की अनुमति दी भी, तो उसे भिक्खुसंघ के अधीन रखा। इस सन्दर्भ में भी स्थिति के विश्लेषण की आवश्यकता है। भगवान् द्वारा आरंभ में महाप्रजापति के प्रव्रज्या लेने
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1. संयुक्त निकाय-प्रथम भाग

 का विरोध करने का कारण क्या था ? क्या उनका विचार था कि स्त्रियों का स्तर पुरुषों से निम्नतर है और उनके प्रवेश से संघ की मर्यादा को ठेस पहुंचेगी ? अथवा यह कि बौद्धिक विकास एवं चरित्र-पालन की दृष्टि से स्त्रियों में धर्म और शील का आदर्श ग्रहण करने की क्षमता ही नहीं है।

उपर्युक्त दो शंकाओं में से दूसरी शंका तो आनन्द ने उस समय उठाई थी जब भगवान् ने स्त्रियों के प्रवेश से इन्कार कर दिया था, और इस शंका का उन्होंने निश्चित और निभ्रान्त उत्तर भी दिया था। उन्होंने कहा था कि स्त्रियों में धर्म और शील का आदर्श ग्रहण करने की पूर्ण क्षमता है, और इस आधार पर वे संघ में स्त्रियों के प्रवेश के विरोधी नहीं थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धिक विकास तथा चरित्र-पालन किसी भी दृष्टि से वे स्त्रियों को हीन या अक्षम नहीं समझते थे। और यह समझना कि तथागत, स्त्रियों को उनके निम्नतर स्तर का तथा उनके प्रवेश से संघ की मर्यादा को ठेस लगने की आशंका से प्रवेश देने के विरुद्ध थे, इसका कोई महत्त्व इस तथ्य के आगे नहीं रह जाता कि यदि वे ऐसा ही समझते होते, तो फिर आगे चलकर भी ये कभी उन्हें संघ में प्रवेश पाने की अनुमति नहीं देते।

अब दूसरा प्रश्न रह जाता है कि उन्होंने भिक्खुणी-संघ को भिक्खुसंघ के अधीन क्यों रखा ? इस सन्दर्भ में भी किसी वर्ग (स्त्री या पुरुष) की श्रेष्ठता का विचार न होकर केवल व्यावहारिकता का विचार ही उनके मस्तिष्क में था। स्त्रियों को प्रव्रज्या देने के प्रश्न पर भगवान् के सामने दो बातें विचारणीय थीं। पहली विचारणीय बात यह थी कि भिक्खुओं तथा भिक्खुणियों के लिए एक ही संघ रखा जाय या प्रत्येक के लिए अलग-अलग संघ रहें ? भगवान् बुद्ध को यह विश्वास था कि स्त्री व पुरुषों के सम्मिलित संघ में ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव होगा। तथागत स्त्री-पुरुषों में एक दूसरे के प्रति प्रबल यौन-आकर्षण से परिचित थे, और जानते थे कि यदि उन्हें परस्पर मिलन के उन्मुक्त अवसर प्रदान किये गये, तो ब्रह्मचर्य एक क्षण भी नहीं टिक सकेगा। और चूंकि उनकी दृष्टि में भिक्खु एवं भिक्खुणी दोनों के लिए ब्रह्मचर्य-पालन आवश्यक था, यह निर्णय लिया जाना स्वाभाविक ही था कि दोनों के बीच किसी प्रकार का अलगाव अवश्य रखा जाय। इस प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के उद्देश्य से ही स्त्री और पुरुषों के लिए दो अलग संघ अस्तित्व में आये।

पृथक संघ-निर्माण के निश्चय के फलस्वरूप ही यह प्रश्न सामने आया कि इन दोनों संघों का पारस्परिक सम्बन्ध क्या हो ? वे एक दूसरे से बिलकुल स्वतंत्र रहे अथवा नहीं ? इस पश्न पर भी हमें देखना है कि भगवान् बुद्ध द्वारा लिये गये निर्णय के अतिरिक्त क्या कोई दूसरा निर्णय भी तत्कालीन परिस्थितियों में सम्भव था ? उस समय जो स्त्रियां धर्म में दीक्षित हो रही थीं, बिलकुल अनभिज्ञ थीं। उन्हें धर्म के सिद्धान्तों में दीक्षित तथा शील के आचरण में प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता थी। यह कार्य उस समय कौन करता ? और भगवान् भी पुरुष भिक्खुओं के अलावा और किन पर इसके लिए विश्वास करते ? पुरुष भिक्खु चूंकि पहले से ही दीक्षित एवं प्रशिक्षित थे, भगवान् ने उन्हीं को, भिक्खुणियों को दीक्षित एवं प्रशिक्षित करने का भार सौंपा। इस शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था से स्वतः ही भिक्खुओं और भिक्खुणियों के मध्य गुरु-शिष्य का संबंध स्थापित हो गया, और यह सम्बन्ध स्वयं ही गुरु का शिष्य के प्रति श्रेष्ठ अधिकार तथा शिष्य का गुरु के अनुशासन में रहने का प्रतीक है। तथागत ने भी यही तो किया।

इस प्रसंग में ईसाई धर्म के मठों (पुरुष संगठनों) तथा स्त्री प्रचारिकाओं की संस्थाओं (Nunneries) के पारस्परिक सम्बन्धों का उदाहरण देना भी उपयुक्त रहेगा। ईसाइयों की ये स्त्री संस्थाएं पुरुष संगठनों के अधीन होती हैं। लेकिन क्या इसी कारण कोई यह आरोप लगा सकता है कि ईसाई धर्म, स्त्री को पुरुष से हीन समझता है ? यदि नहीं तो भगवान् बुद्ध द्वारा भिक्खु भिक्खुणियों के सम्बन्ध में की गई व्यवस्था का ही दूसरा अर्थ क्यों लगाया जाय ?

जहां तक पिटकों का प्रश्न है, उनमें हमें ऐसा कोई आधार नहीं मिलता, जिससे तथागत पर इस आरोप की पुष्टि हो सके कि वे स्त्रियों के प्रति किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे तथा पुरुषों को उनसे सतर्क रहने के लिए कहा करते थे।

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