चीनी व पाकिस्तानी हमले, विदेश नीति तथा कश्मीर-समस्या पर बाबासाहेब के पाँच भाषण

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बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर का भाषण

जय भीम

बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर की भविष्यवाणी

"चीनी व पाकिस्तानी हमले, विदेश नीति तथा कश्मीर-समस्या पर बाबासाहेब के पाँच भाषण"

देश की एकता और सुदृढ़ केन्द्रीय सरकार

[ नई दिल्ली में, 17 दिसंबर 1946 को, संविधान-निर्मात्री सभा की एक बैठक हुई। इस बैठक में प्रधान मंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रस्तावात्मक भाषण किया। नेहरूजी के भाषण के बाद बाबासाहेब का "देश की एकता और एक सुदृढ़ शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार" की आवश्यकता पर निम्न लिखित गंभीर विचार-पूर्ण भाषण हुआ। ]

बाबासाहेब का भाषण

अध्यक्ष महोदय ! मैं समझता हूँ कि पं० नेहरू के प्रस्ताव-भाषण के पहले हिस्से पर बहस की जरूरत है; दूसरे हिस्से पर, जिसमें कि भारतीय संविधान के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला गया है, बहस की जरूरत नहीं है।

अध्यक्ष महोदय ! मैं समझता हूँ कि पं० नेहरू के प्रस्ताव-भाषण के पहले हिस्से पर बहस की जरूरत है; दूसरे हिस्से पर, जिसमें कि भात्री संविधान के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला गया है, बहस की जरूरत नहीं है भाषण के पहले हिस्से में, मेरी समझ में, पांडित्य की ही मात्रा ज्यादा है, और अधिकारों की चर्चा कम । खासकर उस वर्ग के अधिकारों के संबंध में कुछ भी नहीं बताया गया जो आज घाटे की स्थिति में है, और जिसे उस हीन दशा से उबारने की सबसे अधिक आवश्यकता है। मैं चाहता हूँ, हमारा संविधान, इस बात की स्पष्ट घोषणा कर दे कि सरकार का यह निश्चय है कि 'उद्योग- धंधों' तथा 'भूमि' का 'राष्ट्रीयकरण' किया जायगा । प्रस्ताव के पहले हिस्से में, सारी बहस 'रिपब्लिक' शब्द को केन्द्रित किये हुए है। यह बहस इसलिए भी पैदा हुई, क्योंकि डा०जयकर ने कहा था कि लीग की गैर-मौजूदगी में इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाना ठीक न होगा। मुझे इस देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढाँचे के भावी विकास के संबंध में कोई सन्देह नहीं है। मैं जानता हूँ, आज हम राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर अलग- अलग बँटे हुए हैं। हम लोगों में आपस में कलह जारी है। मैं जानता हूँ, मैं खुद भी कलह करनेवालों के एक दल का नेता हूँ। इतना सब होते हुए भी मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि समय आने और हालत बदल जाने पर, कोई ऐसी बात नहीं हो सकती, जो इस देश को एकराष्ट्र बनने से रोक सके। हमारी जाति-पाँति और हमारे मत-मतांतरों के रहते हुए भी, मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होती कि किसी-न-किसी रूप में हम एकराष्ट्र बनकर रहेंगे। (हर्षध्वनि) मुझे यह भी कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारत के बँटवारे की मुस्लिम लीग की माँग के बावजूद एक दिन ऐसा अयेगा जब खुद मुसलमान यह सोचने- समझने लगेंगे कि अखंड भारत ही सबके लिए कल्याणकारी है। (हर्षध्वनि ) जहाँ तक अन्तिम उद्देश्य की बात है, हम में से किसी को भी अपने मन में किसी तरह का खतरा या सन्देह बनाये रखने की आवश्यकता नहीं है। हमारी कठिनाई अन्तिम ध्येय को लेकर नहीं रही है। हमारे सामने सवाल है कि यह जो खिचड़ी समाज है, यह किस तरह एक होकर किसी एक निश्चय पर सहमत हो और फिर सब मिल-जुलकर उस सड़क पर चलें, जो हमें एकता की ओर ले जाती हो। (हर्षध्वनि ) इसीलिए मुझे ऐसा सोचना ठीक जँचता है कि आरम्भिक काररवाई के तौर पर, और इस देश के प्रत्येक विभाग और प्रत्येक वर्ग को सह‌योग करने की प्रेरणा देने के लिए, बहुमत के लिए यह बड़ी दूरदर्शिता और नीतिमत्ता की बात होगी कि वह ऐसे लोगों को, जो साथ चलने के लिए तैयार नहीं हैं और मन में तरह तरह के सन्देह पाले हुए हैं, थोड़ी अतिरिक्त सुविधाएँ दे दे। इसी उद्देश्य से में अपील करता हूँ, हम लोग ऐसे 'नारों' को छोड़ दें जिनसे लोग भयभीत होते हैं। अपने विरोधियों के सन्देहों को दूर करने के लिए हमें उन्हें कुछ विशेष सुविधाएँ भी दे देना चाहिए। हम उन्हें साथ ले लें, जिसमें वे स्वेच्छापूर्वक हमारे साथ उस सड़क पर क़दम से कदम मिलाकर चल सकें, जो हमें सन्देह- रहित भाव से एकता की ओर ले जाती है। इसी दृष्टि से मैं श्री जयकर के संशोधन का समर्थन कर रहा हूँ। इस 'भवन' को इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए कि वह जो निर्णय करने जा रहा है, उसका कानूनी अधिकारों से मेल बैठता है या नहीं, अथवा बह 'स्टेट-पेपर' (शाही फर्मान) के अनुकूल है या नहीं। यह इतना बड़ा सवाल है कि इसे कानूनी चंचन को बंदिश में नहीं वाँधा जा सकता । इन सब बातों को एक तरफ रखकर कुछ ऐसा करें कि जो लोग साथ चलने के लिए तैयार नहीं हैं, वे भी साथ चले आयें। उनके लिए हम यह सम्भव बना दें कि वे साथ आ सकें। इस प्रस्ताव का शायद यह परिणाम हो कि मुस्लिम लीग साथ न दे सके । अपनी बात के समर्थन में मैं आपका ध्यान इस प्रस्ताव की तीसरी धारा की ओर आकर्षित कर सकता हूँ, जिससे भारत के भावी संविधान के रूप पर प्रकाश पड़ता है। मैं इस वात को मानता हूँ कि जब यह प्रस्ताव पास हो जायगा, तो यह विधान-निर्मातृ सभा के लिए, संविधान के निर्माण के सिलसिले में, एक तरह का आदेश बन जायगा। जिस अनुच्छेद की यह बात है, उसमें स्वशासित प्रान्तों, भारतीय राज्यों और केन्द्रीय सरकार की भी चर्चा है। इसमें मध्यकाल के वर्ग-विभाजन की चर्चा नहीं की गई है। 'स्टेट-पेपर' और कांग्रेस-कार्य-समिति द्वारा स्वीकृत वर्चा के प्रस्ताव को देखते हुए मुझे यह आश्चर्य हुआ कि इनमें वर्गीकरण के विचार का उल्लेख मात्र भी नहीं है। जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत प्रश्न है, मैं वर्गीकरण को पसन्द नहीं करता । (हर्षश्वनि) १६३५ के ऐक्ट में, जितनी शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की स्थापना की गई है, मैं उससे भी अधिक शक्ति- शाली केन्द्रीय सरकार का पक्षपाती हूँ। (हर्षध्वनि) लेकिन मेरी इन इच्छाओं का देश की वर्तमान स्थिति से ताल-मेल नहीं बैठता । हम बहुत दूर तक आगे बढ़ आये हैं और मैं नहीं जानता, किन कारणों से कांग्रेसी दल प्रशासन द्वारा निर्मित इस शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की इमारत को, जो मेरी प्रशंसा तथा आदर की वस्तु है, ढहा देने पर राजी हो गया है। अब इस स्थिति के विरुद्ध यह कह देने पर कि हमें शक्तिशाली केन्द्र नहीं चाहिए और यह माँग करने पर कि बीच का एक प्रान्तीय वर्गीकरण अवश्य होना चाहिए, मैं जानना चाहता हूँ कि तीसरे अनुच्छेद में इस वर्गीकरण के विचार को क्यों स्थान नहीं मिला ? मैं इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ कि वर्गीकरण की व्याख्या के बारे में कांग्रेस, मुस्लिम लीग और महामहिम सरकार का एक मत नहीं है। लेकिन मैं यह सदा से मानता आया हूँ कि कांग्रेस के मत में यदि प्रान्त अपना एक उपसंघ बनाना चाहें, तो कांग्रेस को इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी। मेरे इस ख्याल में अगर कोई गलती हो, तो मैं उसे सुधारने के लिए तैयार हूँ। ऐसी दशा में उपसंघ बनाने की संभावना को प्रस्ताव से एकदम कैसे उड़ा दिया गया ? मैं यह प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ कि इस 'सदन' को इस प्रकार का प्रस्ताव पास करने का अधिकार है या नहीं। सम्भव है, इसे अधिकार हो । मेरा प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार का प्रस्ताव स्वीकृत करना आपके लिए बुद्धमानी की बात है ? शक्ति हाथ में होना एक बात है, और बुद्धि तथा विवेक सर्वथा दूसरी । मैं यह भी नहीं चाहता कि भवन इस प्रश्न पर इस दृष्टि से विचार करे कि विधान-निर्मातृ सभा को ऐसा प्रस्ताव स्वीकार करने का अधिकार है या नहीं ? मैं चाहता हूँ कि भवन इस दृष्टि से विचार करे कि इस प्रकार के प्रस्ताव को स्वीकार करना बुद्धिमानी और समझदारी का परिचय देना होगा । मेरा विचार है कि कांग्रेस और लीग में मेल स्थापित कराने का एक और प्रयास होना चाहिए। यह ऐसा महत्त्वपूर्ण लोकहित का विषय है कि इसके निर्णय के लिए हमें इस या उस पार्टी के 'स्वाभिमान' की ओर नहीं देखना चाहिए। हमारी दृष्टि देश-हित और आम जनता की भत्ताई की ओर होना चाहिए। जब हम सर्व-साधारण के भाग्य का निर्णय करने जा रहे हैं, तो हमें नेताओं, व्यक्ति विशेषों या पार्टियों के 'स्वाभिमान' की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । इस समस्या के सुत्तझाने के सिर्फ तीन रास्ते हैं--

  • (१) यह कि एक पार्टी दूसरी पार्टी की इच्छा के सामने अपना पूर्ण आत्म-समर्पण कर दे ।
  • (२) यह कि समझौता हो जाय और उसके आधार पर शान्ति स्थापित कर ली जाय ।
  • (३) यह कि खुला युद्ध ।
  • "मैं यह बात साफ शब्दों में कह देना चाहता हूँ कि यदि इस देश में ऐसा कोई युद्ध छिड़ता है, और उसका कुछ भी संबंध हमारे इस विचाराधीन प्रश्न के साथ है, तो यह युद्ध ब्रिटिश लोगों के साथ नहीं होगा बल्कि मुसलमानों के साथ होगा, और इससे भी खराब बात यह हो सकती है कि यह युद्ध अंग्रेजों और मुसलमानों की सम्मिलित शक्ति के साथ हो।"

    विधान-निर्मातृ सभा के कुछ सदस्यों से मुझे यह सुनने को मिला है कि वे युद्ध के लिए तैयार हैं। मुझे यह सोचकर बेहद हैरानी होती है कि क्या इस देश में कोई आदमी यह भी सोचेगा कि राजनीतिक समस्याओं को युद्ध के द्वारा हल किया जाय ? मैं नहीं जानता कितने लोग इस विचार का समर्थन करेंगे। हो सकता है, कुछ लोग करें, और शायद ऐसे लोगों की संख्या काफी हो। मैं इसलिए ऐसा समझता हूँ कि उन लोगों में से अधिकांश की शायद यह धारणा है कि यह युद्ध ब्रिटिश लोगों के विरुद्ध होगा। किन्तु जो युद्ध लोगों के दिमाग में है, यदि उसे चारो ओर से घेरकर ऐसा सीमित किया जा सके कि वह ब्रिटिश लोगों के ही विरुद्ध एक युद्ध के अतिरिक्त और कुछ न हो, तो कदाचित् मुझे इसके विरोध मैं विशेष न कहना हो । लेकिन क्या यह युद्ध ब्रिटिश लोगों के ही विरुद्ध युद्ध हो सकेगा ? मैं यह बात साफ शब्दों में कह देना चाहता हूँ कि यदि इस देश में ऐसा कोई युद्ध छिड़ता है, और उसका कुछ भी संबंध हमारे इस विचाराधीन प्रश्न के साथ है, तो यह युद्ध ब्रिटिश लोगों के साथ नहीं होगा बल्कि मुसलमानों के साथ होगा, और इससे भी खराब बात यह हो सकती है कि यह युद्ध अंग्रेजों और मुसलमानों की सम्मिलित शक्ति के साथ हो। मैं इस युद्ध के बारे में, जिसकी बात सोची जा रही है, दूसरी कोई वात सोच ही नहीं सकता।

    "हमें चाहिए कि हम अपने आचरण से यह सिद्ध कर दें कि हम में केवल शक्ति ही नहीं, बल्कि ऐसी बुद्धि भी है जिसके बल से हम अपने देश के सभी लोगों को साथ लेकर चल सकते हैं।"

    यदि किसी की ऐसी धारणा है कि युद्ध द्वारा इस समस्या का हल किया जा सकता है, या मुसलमानों से ऐसा संविधान जबर्दस्ती मन- वाया जा सकता है जो उनकी बिना जानकारी या बिना रजामन्दी के स्वीकृत किया गया है, तो इस देश को उनसे निरन्तर युद्ध करके, उन्हें जीतते रहना पड़ेगा । बर्क ने कहा है- "शक्ति देना आसान है, लेकिन बुद्धि देना कठिन है।" हमें चाहिए कि हम अपने आचरण से यह सिद्ध कर दें कि हम में केवल शक्ति ही नहीं, बल्कि ऐसी बुद्धि भी है जिसके बल से हम अपने देश के सभी लोगों को साथ लेकर चल सकते हैं और उनको उस सड़क पर चला सकते हैं, जो हमें निश्चित रूप से एकता की ओर ले जायगी । (हर्षध्वनि) 🙏

    (हर्षध्वनि)

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