रमाई, तुम्हारा त्याग अतुलनीय है!!
लंदन: 30 दिसंबर 1930
रमाई! तुम कैसी हो? यशवंत कैसे हैं? क्या वह मुझे याद करता है…? उसका बहुत ध्यान रखना रमाई। हमारे चार मासूम बच्चों को हमने खो दिया, अब यशवंत ही तुम्हारे मातृत्व का आधार है। उसे निमोनिया है, हमें उसका विशेष ध्यान रखना होगा, उसे पढ़ाना होगा, बड़ा बनाना होगा…!
मेरे सामने बहुत सी उलझनें हैं, अनगिनत मुश्किलें हैं। मनुष्य की धार्मिक गुलामी, आर्थिक गुलामी और सामाजिक असमानता की जड़ों को तलाशना है। मैं यहां गोलमेज सम्मेलन में अपनी भूमिका पर विचार कर रहा हूं तो मेरी आंखों के सामने देश के करोड़ों शोषितों और पीड़ितों का दर्द दिखाई देता है।
हजारों वर्षों से इन गरीबों को दुखों के पहाड़ के नीचे दबा दिया गया है। इन्हें बाहर निकालने का मार्ग मैं खोज रहा हूं। ऐसे समय में यदि कोई भी चीज़ मेरे लक्ष्य से मुझे विचलित करती है तो मेरा मन व्याकुल हो उठता है। इसी विचलन के कारण मैंने उस दिन यशवंत को मारा था…!
तब तुमने ममता भरे स्वर में कहा था—
"उसे मत मारो, वह मासूम है, उसे क्या समझ पड़ेगी?"
फिर तुमने यशवंत को अपनी गोद में समेट लिया था।
लेकिन रमाई, मैं निर्दयी नहीं हूं। मैं क्रांति से बंधा हूं, आग से लड़ रहा हूं, सामाजिक न्याय की क्रांति की ज्वाला में जलते-जलते मैं स्वयं आग बन गया हूं। मुझे खुद ही नहीं पता चलता कि यह अग्नि कब तुम्हें और यशवंत को जला रही है। मेरी कठोरता और रूखापन समझने की कोशिश करना रमाई, यही तुम्हारी चिंता का एकमात्र कारण है।
तुम गरीब माता-पिता की बेटी हो। तुमने अपने मायके में भी अनेकों दुख सहे हैं। गरीबी से पीड़ित रही, वहां भी भरपेट भोजन नहीं मिला। कठिन परिश्रम करती रही, और मेरे संसार में भी तुम्हें इन्हीं मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
परंतु तुम त्यागमयी हो, स्वाभिमानी हो।
तुमने यह सिद्ध कर दिखाया कि सुबेदार (बाबासाहेब के पिता) की बहू कैसी होनी चाहिए। दूसरों की दया पर जीना तुम्हें कभी स्वीकार नहीं रहा। तुमने हमेशा देना सीखा है, मांगना कभी नहीं सीखा।
रमाई, तुम्हारे स्वाभिमान पर मुझे गर्व है।
एक दिन पोयबावाड़ी वाले घर में मैं उदास बैठा था, घर की समस्याओं से परेशान था। तब तुमने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा था—
"मैं हूं न! घर-परिवार संभालने के लिए। सभी समस्याओं को दूर कर दूंगी। घर की परेशानियां तुम्हारे क्रांति के मार्ग में बाधा नहीं बनने दूंगी। मैं गरीब घर की बेटी हूं, मुझे मुश्किलों के साथ जीने की आदत है। तुम चिंता मत करो, मन को कमजोर मत बनाओ। हिम्मत रखो, संसार के कांटों से भरे मुकुट को जब तक जीवित हैं, तब तक नहीं उतारना चाहिए!"
रमाई, कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर तुम मेरे जीवन में नहीं होतीं, तो मेरा क्या होता? संसार केवल भोग-विलास के लिए होता, यदि ऐसी सोच रखने वाली कोई स्त्री मेरे जीवन में होती, तो वह कब की मुझे छोड़कर जा चुकी होती। मुंबई जैसे शहर में भूखे पेट रहकर, सड़क पर गोबर उठाकर उपले बनाकर बेचकर परिवार चलाना… यह भला किसे अच्छा लगता है?
एक बैरिस्टर की पत्नी होकर तुमने कपड़े सिए, अपनी फटी हुई दुनिया को पैबंद लगाकर सहेजा, लेकिन कोई भी स्त्री इस तरह की कठिनाइयों का बोझ उठाकर जीवन जीना नहीं चाहेगी।
पर तुमने अपनी तमाम मुश्किलों को सहकर अपने पति की दुनिया को पूरी क्षमता और स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ाया।
जब मुझे कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी मिली, तब तुमने कहा था, "अब हमारे सभी दुख दूर हो जाएंगे!"
उस खुशी में मैंने तुम्हें लकड़ी की दो पेटियां, थोड़ा सा अनाज, तेल, नमक और आटा दिया था और कहा था—
"हम सबका ध्यान रखना होगा और इसी से गुजारा करना होगा।"
तुमने बिना किसी शिकायात के पूरे परिवार को संभाल लिया।
रमाई! जब मैं यहां था, तब भी और मेरे जाने के बाद भी, जो कुछ तुमने किया, वह करने की ताकत किसी और में नहीं थी।
मुझे तुम्हारे जैसी जीवन संगिनी मिली, मुझे शक्ति मिली, मेरे सपनों को पंख मिले, मेरी उड़ान निर्भय बनी, मेरी हिम्मत बनी रही।
मेरा मन बहुत दिनों से भारी था। कई बार तुम्हारे साथ बैठकर चर्चा करने का मन हुआ, लेकिन सामाजिक कार्यों, लेखन, अध्ययन और अन्य व्यस्तताओं के कारण समय नहीं मिल पाया। मेरे मन में बहुत सारी बातें थीं, लेकिन मैं कह नहीं सका।
आज लंदन में कुछ शांत समय मिला तो मैं अपने सभी विचार तुमसे साझा कर रहा हूं। मेरा मन बेचैन हो गया था, इसलिए मैं अपने ही मन को सांत्वना देने का प्रयास कर रहा हूं।
रमाई, मेरे मन के हर कोने में तुम उपस्थित हो।
तुम्हारे संघर्षों को याद करके, तुम्हारी बातें, तुम्हारी पहाड़ जैसी वेदनाओं और गूंजती हुई करुणा को सोचकर…
मैं अपनी सांस रोककर, कलम पकड़कर, अपने मन को समझाने का प्रयास कर रहा हूं।
रमाई! तुम मेरी चिंता मत करो।
तुम्हारा त्याग और तुमने जो कष्ट सहे हैं, वही मेरी हिम्मत हैं। इस गोलमेज सम्मेलन में सिर्फ भारत के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के शोषितों की शक्ति मुझे साहस दे रही है। अब तुम अपनी चिंता करो…!
तुम बहुत मुश्किलों में रही हो। तुम्हारे मुझ पर असीम उपकार हैं, अनगिनत एहसान हैं। तुम लगातार संघर्ष करती रहीं, कमजोर होती रहीं, लेकिन मुझे हमेशा आगे बढ़ाया।
अब तुम्हें अपनी सेहत का ध्यान रखना होगा।
यशवंत को मां की जरूरत है, और मुझे तुम्हारी…!
अब और क्या लिखूं…?
मैंने कितनी बार कहा कि मेरी चिंता मत किया करो, लेकिन तुम मेरी बात कभी नहीं सुनती।
गोलमेज सम्मेलन समाप्त होते ही मैं जल्द ही तुम्हारे पास आ जाऊंगा।
-- तुम्हारा भीमराव
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रमाई का त्याग अतुलनीय है!
इस पत्र का लिखते हुए मैं सच में रो पडी…
रमाई के त्याग और बलिदान के सामने दुनिया की किसी भी स्त्री की क्रांति तुलनीय नहीं हो सकती…!
मां रमाई को कोटि कोटि नमन, नमन, नमन…!