मैं मार्क्स हूँ — मैं एक इंसान नहीं, एक चेतावनी हूँ।

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मैं मार्क्स हूँ।
मैंने कभी ताज नहीं पहना, कभी तख़्त पर नहीं बैठा, न किसी सेना की अगुवाई की, न किसी चुनाव में खड़ा हुआ।
लेकिन मेरी कलम ने वो कर दिखाया जो तलवारें नहीं कर सकीं — मैंने विचारों से सल्तनतें हिलाईं, और दुनिया के नक्शे को बदल दिया।

मैं कार्ल हेनरिख मार्क्स हूँ। मेरा जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के ट्रायर शहर में हुआ।
मेरे वालिद एक वकील थे, यहूदी थे, लेकिन परिवार को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने के लिए उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया।
मैंने बॉन और बर्लिन यूनिवर्सिटी में कानून, इतिहास और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की।
मेरी दिलचस्पी हमेशा किताबों और विचारों में रही — लेकिन वो विचार जो केवल दिमाग़ में क़ैद न हों,
बल्कि समाज को बदलने का दम रखते हों।

मैंने हेगेल का दर्शन पढ़ा, लेकिन जल्द ही उसे "जड़" और "अधूरा" पाया।
मेरे विचारों की दिशा बदलने में एक और नाम बेहद अहम रहा — फ्रेडरिक एंगेल्स।
हमारी दोस्ती ने विचारों की एक ऐसी गठजोड़ बनाई, जिसने पूंजीवाद के ख़िलाफ़ बगावत की बुनियाद रखी।

मैंने देखा दुनिया को दो हिस्सों में बंटा हुआ —
एक वो जो काम करता है, पसीना बहाता है, खेतों और फ़ैक्ट्रियों में मरता है।
और दूसरा वो जो आराम से कुर्सियों पर बैठकर उनके खून से अपना मुनाफ़ा कमाता है।

मैंने कहा —
"अब तक का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।"

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"कम्युनिस्ट घोषणापत्र" — एक ऐलान नहीं, एक चेतावनी

1848 में, एंगेल्स के साथ मिलकर मैंने लिखा:
"The Communist Manifesto" — कम्युनिस्ट घोषणापत्र।
उसमें मैंने लिखा —
“दुनिया के मेहनतकशो, एक हो जाओ!”
यह केवल एक नारा नहीं था, बल्कि एक संघर्ष का बिगुल था।
मैंने कहा, पूंजीवाद अपने अंदर ही बीज बोता है अपने विनाश का।
क्योंकि जब मज़दूर जागेंगे, तब तख़्त और ताज की कोई जगह नहीं बचेगी।

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जैसे-जैसे लिखा, वैसे-वैसे भूख मिली...

मेरे लेखन ने दुनिया को चेताया, लेकिन मुझे कोई नौकरी नहीं मिली।
मैं फ्रांस, बेल्जियम, फिर लंदन पहुँचा। मेरे तीन बच्चे भूख से मर गए।
बीवी जेन की आँखों में आँसू थे, मगर उसने कभी शिकायत नहीं की।
मेरी ज़िंदगी मुफ़लिसी से भरी थी — लेकिन मैं लिखता रहा।
मेरी किताबें अख़बारों से बाहर कर दी जाती थीं, मगर मेरे शब्द,
दिलों और दिमाग़ों में घर करते जा रहे थे।
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"दास कैपिटल" — पूंजीवाद की चीरफाड़

मैंने पूंजीवाद को सिर्फ़ नारा लगाकर नहीं ठुकराया,
मैंने उसे तथ्य, इतिहास और गणित से समझाया।

"Das Kapital" (1867) — मेरी सबसे अहम किताब।
इसमें मैंने बताया कि मुनाफ़ा कैसे पैदा होता है,
मज़दूर की मेहनत कैसे चोरी की जाती है,
और कैसे पूंजीपति हर चीज़ को "सामान" में बदल देते हैं —
यहाँ तक कि इंसान को भी।

मैंने पूंजीवाद को एक खूबसूरत इमारत नहीं,
बल्कि एक "संरचित शोषण प्रणाली" (structured system of exploitation) बताया।
जिसमें हर मुस्कराता बाज़ार, किसी रोते हुए मज़दूर की मज़दूरी पर टिका होता है।

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मेरा असर — रूस से भारत तक

जब मैं मरा — 14 मार्च 1883 को —
मेरे जनाज़े में मुश्किल से 10 लोग थे।
लेकिन मेरी मौत के बाद मेरी सोच ने सरहदें तोड़ीं।

1917 में लेनिन ने मेरी सोच को रूस की धरती पर लागू किया।
फिर माओ ने चीन में, और चे ने क्यूबा, बोलिविया और अफ्रीका में।

भारत में — भगत सिंह मेरी किताबें जेल में पढ़ता था।
डॉ. अंबेडकर ने "पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद" को एक जैसे शोषक कहा।

मैंने जो शुरू किया, वो मैं ख़ुद पूरा नहीं कर पाया।
मगर आज भी जब कोई मज़दूर अपने हक़ की बात करता है,
कोई छात्र शिक्षा की बराबरी की मांग करता है,
कोई औरत हक़-ओ-हिफाज़त की लड़ाई लड़ती है —
तो वहाँ मेरी रूह मौज़ूद होती है।

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मैं सिर्फ़ विचारक नहीं, चेतावनी था...

मैंने कहा था —
"दुनिया को केवल समझना ही काफी नहीं है,
अब उसे बदलने की ज़रूरत है।"

मैंने क्रांति की योजना नहीं दी — मैंने उसकी ज़रूरत साबित की।
मैंने केवल सवाल नहीं उठाए,
बल्कि वो आइना दिखाया जिसे पूंजीवादी ताक़तें छिपाना चाहती थीं।

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अगर तुम पूछो: "आज मार्क्स क्यों ज़रूरी है?"

तो मैं कहूँगा —
क्योंकि आज भी मज़दूर की मेहनत से मुनाफ़ा कमाया जाता है,
आज भी शिक्षा एक बिज़नेस बन चुकी है,
स्वास्थ्य सेवा अमीर की पहुंच में है,
और इंसान को आज भी "उपयोगी" और "बेकार" में बाँटा जा रहा है।

तो जब तक ये सूरत है, मैं ज़िंदा हूँ।
क्योंकि...

मैं मार्क्स हूँ — मैं एक इंसान नहीं, एक चेतावनी हूँ।
एक किताब नहीं, एक चिंगारी हूँ।
एक विचार नहीं, एक इंक़लाब हूँ।

*बा का ज्ञान
नारियल के तेल में नीम के पत्तों का पेस्ट डालकर पकाएं व छान ले, इस तेल से हफ्ते में दो बार बालों में मालिश करने से बालों का झड़ना रुकेगा और बाल लंबे घने हो जाएंगे।

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