सरकार के झूठे दावे, झूठे आंकड़े
4 महीने में ही रोजगार और राशन पर खर्च हो गया साल भर का 45 फीसदी बजट
‘‘4 महीने में ही रोजगार और राशन पर खर्च हो गया साल भर का 45 फीसदी बजट’’ क्या यह आंकड़ा सही है? बीजेपी सरकार में सरकार और गोदी मीडिया द्वारा जारी किसी भी आंकड़ों पर रत्तीभर भी विश्वास नहीं किया जा सकता है. इनके आंकड़ों पर विश्वास करना खुद को धोखा देने के समान है. क्योंकि इनके हर आंकड़ों में साजिश की बू आती है. इनके द्वारा जारी किया गया हर आंकड़ा सरकार के समर्थन में होता है, भले ही सरकार ने जनता के लिए कुछ भी न किया हो, फिर भी गोदी मीडिया, सरकार के ही समर्थन में आंकड़ें पेश करती दिखाई देती है. यही नहीं सरकार की पोल खोलने वाले जो आंकड़ें होते हैं उनको या तो छिपा दिया जाता है या फिर उसे तोड़ मरोड़कर पेश कर दिया जाता है. इस षड्यंत्र को जनता समझ नहीं पाती है.
गूगल से ली गई छायाचित्र
अगर सरकार गरीबों एवं मजदूरों के लिए राशन और रोजगार का इंतजाम किया होता तो न तो गरीबों
को भुखमरी का दंश झेलना पड़ता और न ही मजदूरों को शहरों की तरफ पलायन करना पड़ता. अगर,
बात सरकार की करें तो सरकार की ओर से जारी आंकड़ों में भी सबसे ज्यादा हेराफेरी होती है. इस
बात का अंदाजा ‘‘अर्जुन सेन गुप्ता रिर्पोर्ट-2007’’ से लगाया जा सकता है. 2007 में अर्जुन सेन गुप्ता
ने वो रिपोर्ट जारी किया था जो भारत की वास्तविक तस्वीरें थी. ये वो आंकड़े थे जो कांग्रेस-बीजेपी
को पूरी तरह से नंगा कर चुके थे. उस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि भारत की 83 करोड़ जनता
गरीबी के चलते भुखमरी के शिकार हैं. लेकिन, कांग्रेस और बीजेपी ने सेन गुप्ता की रिपोर्ट को न
केवल झूठा साबित करने की कोशिश की, बल्कि उस रिपोर्ट को वेबसाइट से ही गायब कर दिया.
अब जरा सरकार के इन आंकड़ों पर गौर करें
तो मीडिया सूत्रों के मुताबिक, देश में
कोरोना वायरस महामारी और बाद में लॉकडाउन के चलते आर्थिक गतिविधियों को चालू रखने
के लिए केंद्र सरकार द्वारा रोजगार और रियायती राशन के लिए जारी कुल फंड की 45 फीसदी के करीब राशि खर्च हो गई. सरकारी
आंकड़ों के अनुसार ये राशि 2020-21 वित्त
वर्ष के पहले चार महीनों में खर्च की गई है. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के जरिए 9 करोड़ घरों को अप्रैल और जुलाई में काम
मिला. इसी तरह राष्ट्रीय खाद्य अधिनियम (एनएफएसए) के तहत रियायती दरों पर 7.20 करोड़ लोगों को अप्रैल-जुलाई के बीच हर
महीना राशन दिया गया.
यह भी बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की जो 25 मार्च से अमल में आ गया और अगले 68 दिनों तक लागू रहा. इस दौरान कोरोना के डर से सभी विनिर्माण और सेवा इकाइयों को बंद रखना आवश्यक समझा गया. इसके बाद बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया, इनमें अधिकतर दैनिक मजदूर थे जो उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से शहरों में आए थे.
रिपोर्ट के मुताबिक मनरेगा के तहत जुलाई में 2.42 करोड़ घरों को रोजगार मुहैया कराया गया जो ये संख्या जून में 3.89 करोड़ और मई में 3.31 करोड़ थी. इस योजना के तहत ग्रामीण परिवार में एक सदस्य को साल में कम से कम 100 दिन काम की गारंटी दी जाती है. मनरेगा की केंद्रीय सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य और राजस्थान में ग्रामीण इलाकों में काम करने सामाजिक कार्यकर्ता निखिल दे ने बताया, जुलाई में इस योजना के तहत काम पाने वाले लोगों की संख्या कम थी, क्योंकि प्रवासी श्रमिक वापस शहरों में लौट आए. इसके अलावा मजदूर बुवाई के काम में जुट गए, जो जुलाई में अच्छी बारिश के बाद शुरू हो जाता है. उल्लेखनीय है कि इस साल नरेगा के तहत प्रदान किया गया रोजगार साल 2019 और साल 2018 की तुलना में लगभग 50 फीसदी अधिक है. इस अवधि के दौरान 100 दिनों का रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या 2019 से लगभग तीन गुना है.
अब अगर अन्य आंकड़ों पर गौर करें तो सरकार द्वारा जारी आंकड़े झूठ साबित हो रहे हैं. क्योंकि लॉकडाउन के दौरान सरकार रोजगार और राशन देने में नाकाम रही है. हकीकत यह है लॉकडाउन के दौरान करोड़ों गरीब एवं प्रवासी मजदूर रोजगार और राशन से वंचित हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृषि उत्पाद खरीद मामले में सरकार पूरी तरह से फिसड्डी साबित हुई है. आंकड़ा बताता है कि केन्द्र ने कृषि उत्पाद खरीद का जो लक्ष्य रखा था उसका महज 50 प्रतिशत की खरीददारी कर सकता. इससे भी चौंकाने वाली बात है कि 9 राज्यों में बिल्कुल खरीद ही नहीं हो सकी. यही नहीं आत्मनिर्भर पैकेज के तहत सिर्फ 27 फीसदी प्रवासी मजदूरों को ही राशन मिला है. यह मामला यही नहीं रूका है. बल्कि पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत केवल 13 फीसदी मजदूरों तक राशन पहुंचा है, बाकी के सरकार के पास आंकड़े ही उपलब्ध नहीं है. इसी दौरान एक और आंकड़ा है जो हैरान करने वाला है. आंकड़ों के मुताबिक, 55 प्रतिशत परिवार मुश्किल से दो वक्त का भोजन जुटा पा रहे हैं.
इसी तरह से अगर रोजगार की बात करें तो
सरकार की घोषणा के बाद गरीब प्रवासी मजदूरों को लगा कि संकट काल के दौरान सरकार की
घोषणा से उनको रोजगार मिलेगा जिससे उनको राहत मिलेगी. लेकिन, यह योजना भी पहले की योजनाओं की तरह
जुमला साबित हो गया. कोरोना महामारी के कारण देशभर में लगे लॉकडाउन के दौरान लाखों
प्रवासी श्रमिक अपने-अपने घरों को लौट गए थे. इसको लेकर केन्द्र सरकार प्रवासी
मजदूरों को उनके गांवों में कौशल विकास योजना के तहत रोजगार देने का दावा कर रही
थी. लेकिन संकट काल के दौरान यह दावा भी जुमला साबित हो गया.
एक
सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है कि करीब दो-तिहाई श्रमिक गांवों में कौशल
आधारित रोजगार के अभाव में या तो शहरों को लौट चुके हैं या लौटना चाहते हैं.
श्रमिकों को लेकर किए गए इस सर्वेक्षण में करीब 4,835 परिवार शामिल हुए, जिससे यह जानकारी सामने आई है. यह अध्ययन आगा खान रूरल सपोर्ट
प्रोग्राम (भारत), ऐक्शन फॉर
सोशल एडवांसमेंट, ग्रामीण
सहारा, आई-सक्षम, प्रदान, साथी-यूपी, सेस्टा, सेवा मंदिर और ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया
फाउंडेशन ने मिलकर किया है. यह अध्ययन 24 जून से 8 जुलाई के बीच 11 राज्यों के 48 जिलों में 4,835 परिवारों के त्वरित आकलन पर आधारित है.
इसमें पता चला कि 29 फीसदी
प्रवासी शहरों में लौट चुके हैं और 45 फीसदी शहरों में वापस आना चाहते हैं.
अध्ययन में पता चला कि 43 फीसदी परिवारों ने भोजन में कटौती की
है और 55 फीसदी ने
कहा कि उन्होंने खाने की वस्तुएं घटाई हैं. आर्थिक कठिनाइयों के चलते करीब छह
फीसदी परिवारों ने घरों का सामान गिरवी रखा और 15 फीसदी को अपने मवेशी बेचने पड़े. अब
प्रवासी मजदूरों के सामने संकट खड़ा हो गया कि जहां शहरों से हजारों किमी पैदल चलकर
किसी तरह से गांव पहुंचे थे, अब उन्हें
फिर से शहरों की तरफ पलायन करना पड़ रहा है. ये उक्त आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे
हैं कि संकट काल के दौरान भी सरकार की ओर से गरीब प्रवासी मजदूरों को न तो राशन
मिला है और नहीं रोजगार. इसके बाद भी सरकार रोजगार और राशन पर एक साल के बजट का 54 फीसदी खर्च करने का दावा कर रही है.@Nayak1
In 4 months, 45% of the budget of the year was spent on employment and
food
"Within
4 months 45% of budget for a year is spent on employment and food" Is this
figure correct? In the BJP government, no data can be trusted even by any data
released by the government and the dock media. Trusting their figures is like
cheating yourself. Because each of their figures smells of conspiracy. Every
data released by them is in support of the government, even though the
government has not done anything for the public, the dock media seems to be
presenting figures in support of the government itself. Not only this, the
statistics which are revealed by the government are either hidden or they are
twisted and presented. The public does not understand this conspiracy.
Photograph taken from Google
If the
government had provided food and employment for the poor and laborers, then the
poor would not have to face the brunt of starvation and the workers would have
to migrate to the cities. If we talk about the government, the figures released
by the government are also the most manipulative. This can be gauged from
"Arjun Sen Gupta Report-2007". In 2007, Arjun Sen Gupta released a
report which was real pictures of India. These were the figures who had
completely naked the Congress-BJP. In that report, it was claimed that 83 crore
people of India are victims of starvation due to poverty. However, the Congress
and the BJP not only tried to prove Sen Gupta's report as false but also made
the report disappear from the website.
Overall, it
is proved from the false or fake data released by the government and the media
that the government has done a lot for the public. Like the government has
released the data that in 4 months, 45 percent of the budget has been spent on
employment and food. Whereas, the ground reality is something else. That is,
the government wants to show that during the lockdown, the government spent 45
per cent of the one-year budget on food and food.
Now if you
look at these figures of the government, according to media sources, in the
country due to the corona virus epidemic and the subsequent lockdown, the
central government will keep close to 45% of the total funds released for
employment and subsidized food to keep economic activities going. Amount was
spent According to government figures, this amount has been spent in the first
four months of the financial year 2020-21. 9 million households got work in
April and July through Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee
Scheme (MNREGA). Similarly, under the National Food Act (NFSA), 7.20 crore
people were given food every month between April and July at concessional
rates.
It is also
being told that Prime Minister Narendra Modi announced a nationwide lockdown on
March 24, which came into force from March 25 and remained in force for the
next 68 days. During this time it was considered necessary to keep all
manufacturing and service units closed due to fear of Corona. After this a
large number of migrant laborers started migrating, most of them were daily
laborers who came to cities from states like Uttar Pradesh, Bihar, Odisha,
Jharkhand and West Bengal.
According to
the report, under the MNREGA, 2.42 crore households were provided employment in
July, which was 3.89 crore in June and 3.31 crore in May. Under this scheme, a
member of a rural household is guaranteed at least 100 days of work in a year.
Nikhil De, a former member of the MNREGA Central Advisory Council and a social
worker working in rural areas in Rajasthan, said, "In July, the number of
people employed under the scheme was small, as migrant workers returned to the
cities." Apart from this, the laborers got involved in sowing work, which
starts after a good rain in July. It is noteworthy that the employment provided
under MNREGA this year is about 50 per cent more than the year 2019 and 2018. The
number of people getting 100 days of employment during this period is almost
three times from 2019.
Now if you
look at other figures, then the figures released by the government are proving
false. Because the government has failed to provide employment and food during
the lockdown. The reality is that during lockdown, crores of poor and migrant
laborers are deprived of employment and food. According to a report, the
government has proved to be a complete loser in the purchase of agricultural
products. The data shows that only 50 percent of the target set by the Center
to purchase agricultural products could be purchased. Even more surprising is
that in 9 states absolutely no purchase could be made. Not only this, only 27
percent migrant laborers have got food under the self-sufficient package. This
is not the case. Rather, food has reached only 13 percent of the laborers under
the PM Garib Kalyan Anna Yojana, the rest of the government does not have the
data available. Meanwhile, there is another figure which is surprising.
According to the data, 55 per cent of the families are able to hardly get two
time meals.
Similarly,
if we talk about employment, after the announcement of the government, the poor
migrant laborers felt that during the crisis period, the government's
announcement will give them employment, which will give them relief. But, this
plan also proved to be a jumla like earlier schemes. During the lockdown across
the country due to the Corona epidemic, millions of migrant workers returned to
their homes. Due to this, the central government was claiming to provide
employment to the migrant laborers under the skill development scheme in their
villages. But during the crisis period this claim also proved to be jumla.
A survey has
revealed the fact that about two-thirds of the workers have either returned to
the cities or want to return due to lack of skill based employment in the
villages. About 4,835 families took part in this survey on labor, which has
revealed this information. This study has been done by Aga Khan Rural Support
Program (India), Action for Social Advancement, Grameen Sahara, I-Able, Pradan,
Saathi-UP, SESTA, Seva Mandir and Transform Rural India Foundation. The study
is based on a quick assessment of 4,835 families in 48 districts of 11 states
between June 24 and July 8. It was found that 29 percent of the expatriates
have returned to the cities and 45 percent want to return to the cities.
The study
found that 43 per cent of the families had cut down on food and 55 per cent
said that they have reduced food items. Due to financial difficulties, about
six per cent of the families pledged their household goods and 15 per cent had
to sell their cattle. Now the crisis arose in front of the migrant laborers
that where they had reached the village somehow after walking thousands of km
from the cities, now they have to migrate again to the cities. These figures
are a testimony to the fact that the poor migrant laborers have neither got
food nor employment during the crisis. Even after this, the government is
claiming to spend 54 percent of a year's budget on employment and food. @
Nayak1
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