गोरखनाथ मूलतः बौद्ध मतावलंबी थे. उनके गुरु या पिता मक्षेन्द्रनाथ भी प्रारम्भ में बौद्ध थे. कहा जाता है कि बौद्ध मत के प्रभाव से गो-रक्षा के लिए काम करने के कारण, गोरख नाम से जाने गये.
वैदिक धर्म में गायों की सर्वाधिक बलि दी जाती थी और गौ मांस खाया जाता था. तराई में लोहे के हल के आविष्कार के फलस्वरूप खेती किसानी के लिए बैलों की जरूरत थी. इसलिए बुध्द ने पशुवध के विरुद्ध अभियान चलाया जो खेतिहरों को भाया.
बुध्द के जन्मस्थल नेपाल के लोग, बुध्द के अनुयाई बने. वे ही आगे चलकर गोरखनाथ के अनुयाई हुये और गोरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हुये. इसी कारण उन्हें गोरखा कहा गया. ब्रिटिश अखबार 'द होमवर्ड मेल, अगस्त 20, 1894' के अनुसार, मेहतर जाति के लोग संत गाज़ी मियां को अपना संरक्षक मानते थे. जो पंच पियारा समुदाय के थे तथा गजनी के रहने वाले महमूद के भतीजे थे. उन्होंने गोरखनाथ से प्रभावित होकर गायों का संरक्षण किया था. इस प्रकार मेहतर जाति के लोग भी गोरखनाथ से प्रभावित थे.
बौद्ध धर्म से प्रभावित होने का दूसरा प्रमाण यह है कि गोरखनाथ के विचारों में मध्यम मार्ग साफ दिखाई देता है--
षांये भी मरिये अणसाये भी मरिये,
गोरषं कहै पूजा संजमि ही तरिये
मधि निरंतर कीजै बांस,
निहचल मनुवा थिर होई सांस.
(अधिक खाने से भी मरो, न खाने से भी मरो. गोरख कहते हैं कि हे पुत्रों संयम से ही तरो. निरंतर मध्यम मार्ग में ही वास करना चाहिए. मध्यम मार्ग का अनुसरण करने से मन निश्चल और श्वास स्थिर हो जाता है)
बुध्द के विचारों का प्रभाव गैर सनातनी लोगों पर पड़ा था. इसलिए संतो और नाथों की वाणियों में बौद्धों का प्रभाव दिखाई देता है. गोरखनाथ का कार्यकाल 11वीं सदी या 12वीं सदी के अंत से पूर्व का माना जाता है.
गोरखनाथ ने अपने नाथ पंथ से जिस दर्शन को स्थापित किया वह हिंदू धर्म से भिन्न, जोगी या योगी दर्शन था. वह हिंदू मुस्लिम विभाजन के खिलाफ था और बहुत हद तक सूफीवाद के करीब था.
(पृष्ठ -: 77-78, पुस्तक-: कबीर हैं कि मरते नहीं)