सूफी सिलसिला उदय

2 minute read
0

दसवीं शताब्दी के फारसी इतिहासकार इब्न-अल-फकीह और तेरहवीं शताब्दी के सीरियाई इतिहासकार वाकूत ने बल्ख़ में एक बौद्ध स्तूप होने की बात स्वीकार की है,जिसमें बौद्ध भिक्षु कुछ कर्म-कांड करते थे। 

इस्लाम के रहस्यवादी सूफ़ीमत का उदय भी बल्ख़ से ही हुआ। सूफियों का प्रारंभिक नायक इब्राहीम इब्न अदम आठवीं शताब्दी में बल्ख़ से ही भारत आया। 

राहुल सांकृत्यायन भी शोधात्मक निष्कर्ष देते हैं कि सूफ़ियों का उदय श्रमणों और भिक्षुओं से हुआ। 

वस्तुतः सूफी किसी समय श्रमण और भिक्षु ही थे। इस्लाम के उदय के बाद उनका अपनी भूमि से अर्थात भारत से धार्मिक संपर्क कट गया तो उन्होंने स्थानीय मान्यताओं में से ही सूफी मत को जन्म दिया। 

सूफियों के सारे रीति-रिवाज बौद्ध भिक्षुओं व श्रमणों के नीति-नियमों का परिवर्तित रूप हैं। सूफ़ीमत में परिव्राजकों को 'कलंदर' कहते हैं। किसी सूफी सिलसिले में उस लिबास को 'कमली', कहीं 'गुदड़ी' और कहीं 'कफनी' कहते हैं। 

सूफियों में भी बौद्ध पंथों की तरह गुरु-शिष्य परंपरा है। वह पंथ या परंपरा को 'सिलसिला' कहते हैं। सूफियों में भी दीक्षा का विधान है। मरते वक्त बुजुर्ग फ़कीर जिस भी योग्य मुरीद अर्थात् शिष्य को अपना लिबास और कासा दे देता है, वही सिलसिले का अगला वारिस अर्थात् उत्तराधिकारी होता है। यह परंपरा भी बौद्धों से आई। बौद्धों के जेन मत में यह प्रथा अभी भी प्रचलित है। 

यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि सूफी मत का चरम विकास भी अंततः भारतीय उपमहाद्वीप में ही हुआ। 

अबूबक्र हरीरी सूफ़ी की परिभाषा करते हैं- 'संपूर्ण शुभाचरणों से पूर्ण, संपूर्ण दुराचरणों से मुक्त।' और शहाबुद्दीन सुहरवर्दी परिभाषित करते हैं- 'पवित्र जीवन, त्याग और शुभ गुण जहाँ इकट्ठा हों।' 

इन परिभाषाओं के प्रकाश में, बौद्धों के शील और विनय सूफियों के भी आदर्श रहे हैं। 

भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि-अवशेषों पर आठ स्तूप बनवाए गए। दो स्तूप और भी बनवाए गए जिसमें क्रमशः भगवंत के अंतिम संस्कार में प्रयुक्त हुए बर्तन तथा फूल (राख) स्थापित किए गए।

भगवान् बुद्ध के समकालीन प्रधान भिक्षुओं-सारिपुत्र, मौदगल्यायन, महाकाश्यप, आनंद आदि के निर्वाण के बाद भी उनके अस्थि-अवशेषों पर स्तूप बनवाए गए। साँची स्तूप में सारिपुत्र, मौदगल्यायन के अस्थि-अवशेष अभी भी रखे हैं। 

तब से बौद्धों में यह परंपरा रही है कि मठ अथवा विहार के प्रमुख की मृत्यु के बाद उसके अस्थि-अवशेषों पर स्तूप बनाया जाता है। 

स्तूप-निर्माण के पीछे बहुत बड़ा आध्यात्मिक विज्ञान रहा है। 

इसी स्तूप परंपरा ने सूफियों में मज़ार या दरगाह का रूप ले लिया। फर्क यह हो गया कि भारतीय बौद्धों में शरीर का अग्नि संस्कार किया जाता था और सूफ़ियों में दफनाया जाता है। 

मध्यकाल की संत परंपरा में संतों के देहावसान के बाद उनकी समाधि बनाने का प्रचलन शुरू हुआ। स्तूप, समाधि और मज़ारें आध्यात्मिक ऊर्जा का एक जाग्रत केंद्र होती हैं। 

_________  जय मूलनिवासी 

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)
To Top