बड़ी फूहड़ थी वो,
छौंक बघारते समय आ चिपकते थे माथे से उसके कुछ छींटे चिटकते घी के,तड़प उठती थी वो जैसे चिटका हो कहीं ख़्वाब उसका।
दाल भी छितराई सी बनाती थी ,जैसे कई ख़्वाब टूट कर गये हों बिखर।
सब्जियों में ना जाने कैसे नमक रह जाता था कहीं कम कहीं ज्यादा ।
जैसे हो न पायी हो दर्ज उसकी उपस्थिति आज तक कहीं बराबर ।
ना रोटी गोल ,ना पकी होती थी उसकी,कच्ची ही निगल ली जाती थी।
जैसे निगल लिये गये थे सपने उसके कच्चे ही।
मुस्कुराना तक न आता था आहिस्ता,
चुप रहती या ठठाकर हँस पड़ती थी वो,
मुँह उसका पकड़ लिया जाता सिल दिया जाता था अंवार कस कर ।
आंखों का काजल भी फैला रहता स्याह,फैला दी गयी हो ख़्वाहिशों पर जैसी रात की चादर ।
होठों को तो रंगना आया ही नहीं कभी,जैसे भर ना पायी रंग वो कभी अपने ...............
बड़ी उमस होती है आधी अधूरी थोड़ी सी औरतों में ।है ना ....
जय मूलनिवासी
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