जहाँ तक भारत की बात है, यहाँ लगभग 95% महिलाएं गुलाम हैं

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*अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर*
   महिलाओं पर, खासतौर से शोषित-पीड़ित वर्ग की महिलाओं पर, लगातार अत्याचार बढ़ता जा रहा है। धर्म की आड़ में उन अत्याचारों को जायज ठहराया जा रहा है। सामंती गुण्डे,पत्रकार, नेता-अभिनेता-खिलाड़ी-अफसर, बड़े पूंजीपति शोषक वर्गों के साधू, संत, महन्त, पीर, मुजावर, औलिया तथा शोषक वर्ग का अन्य कोई भी तबका बाकी नहीं जो महिलाओं के विरुद्ध शोषण, दमन, अन्याय, अत्याचार न करता हो। शोषक वर्ग के लोगों ने महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना दिया है। पूँजीवादी साम्राज्यवादी शोषक वर्ग अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिए औरतों की नग्नता को बढ़ावा देता जा रहा है। "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते, तत्र देवता" महज एक जुमला बना हुआ है।

शोषक वर्ग ने एक ऐसा माहौल बना रखा है कि हर जगह महिलाओं पर खतरा न सिर्फ बना हुआ है बल्कि बढ़ता जा रहा है। आफिसों, बाजारों, दुकानों, स्कूलों, अस्पतालों, कारखानों, रेलों, सड़कों, हवाई जहाजों… कहीं भी महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं। टेलीविजन चैनलों और सोशल मीडिया के जरिए गन्दगी परोस कर घरेलू परिवेश को भी इतना गन्दा बना दिया है कि महिलाएँ घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं।

मौजूदा सरकार एक तरफ महिला सशक्तीकरण का नारा लगा रही है, दूसरी तरफ आँगनवाड़ी, आशाकर्मी, स्कीम वर्कर के तौर पर कार्यरत महिलाओं के श्रम का जबर्दस्त शोषण कर रही है। सबसे ज्यादा उत्पीड़न भूमिहीन, गरीब किसान व मजदूर वर्ग की महिलाओं का हो रहा है। दर असल जिस वर्ग का सबसे ज्यादा शोषण होता है उसी वर्ग का सबसे ज्यादा उत्पीड़न भी होता है। 

महिलाओं की इन बदतर हालातों के लिए वही शोषक वर्ग ही जिम्मेदार है, जो अपने मुनाफे और एकाधिकार के लिए मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था को चला रहा है। परन्तु कुछ नारीवादी लोग सभी पुरुषों को जिम्मेदार ठहराकर जहां एक तरफ गरीब महिलाओं को गरीब पुरुषों के खिलाफ भड़काकर हर घर में ही झगड़ा लगाने का काम करते हैं। वहीं दूसरी तरफ वे शोषक वर्ग द्वारा किए जा रहे जघन्य शोषण को छिपाने का भी काम करते हैं। ऐसे नारीवादियों से महिलाओं को सावधान रहना चाहिए तथा शोषित-पीड़ित वर्ग की महिलाओं को शोषित-पीड़ित वर्ग के पुरुषों के साथ मिलकर ही शोषक वर्ग के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़नी चाहिए। 

आजादी की लड़ाई शुरू करने के लिए गुलामी के कारणों को जानना होगा। गुलामी के कारणों का भौतिक समाधान ढूँढ़ने के लिए इतिहास पर एक नजर डालना होगा।

पुराने जमाने में महिलाएँ आजाद थीं। बच्चों को पालने-पोषने, उनकी देख-रेख करने, बूढ़ों की देखभाल आदि घरेलू काम महिलाएँ पहले से ही करती रही हैं मगर आदिम क़बीलाई युग में बच्चों को पालने-पोषने, उनकी देख-रेख करने, बूढ़ों की देखभाल आदि कामों के साथ-साथ महिलाएँ खेती, बागवानी, शिकार आदि सामाजिक उत्पादन का काम भी करती थीं। सामाजिक उत्पादन के काम में लगी होने के कारण महिलाएँ शारीरिक रूप से भी बलिष्ठ होती थीं। पूरे कबीले पर महिलाओं का दबदबा था।

 जब आग की खोज हो गई, तब उन चीजों को भी मनुष्य खाने लगा जिन्हें कच्चा नहीं खा सकता था। इससे खाने-पीने की चीजों का दायरा बढ़ गया। खाने-पीने की चीजों की पैदावार भी बढ़ गयी। जिससे बचत में बढ़ोत्तरी होने लगी। एकत्रित भोज्य पदार्थों की रखवाली करना और भोजन पकाने, आग को संरक्षित रखने, बूढ़ों, बच्चों की देख-भाल, अनाज, दूध आदि के रख-रखाव, झाड़ू-पोंछा आदि घरेलू काम बढ़ता गया। उस वक्त भोथरे औजारों से खेती करने, शिकार करने की तुलना में यह काम आसान था, इस आसान काम को महिलाओं ने अपने ऊपर ले लिया। महिलायें खेतों, बागीचों में काम करने व शिकार करने का काम छोड़ती चली गयीं। खेती, बागवानी, शिकार, पशुपालन के काम ज्यादातर पुरुष ही करने लगा। इससे पुरुषवर्ग शारीरिक तौर पर मजबूत होता गया और महिलाएँ कमजोर होती चली गयीं। 

आगे चलकर जो उत्पादन करता था, उसी को उत्पादित सम्पत्ति के रखरखाव और खरीदने बेचने का अधिकार दे दिया गया जिससे निजी सम्पत्ति का उद्भव हुआ। चूँ कि पुरुष वर्ग ही उस वक्त सामाजिक उत्पादन के कार्यों में लगा हुआ था इस लिए निजी सम्पत्ति का मालिकाना अधिकांशत: पुरुषों को ही मिला। ज्यों-ज्यों पुरुषों के हाथ में निजी सम्पत्ति बढ़ती गयी त्यों-त्यों स्त्रियाँ उन सम्पत्ति वान पुरुषों पर निर्भर होती चली गयीं। 

 दास प्रथा के दौर में औरतों को गुलाम बना कर उन्हें जानवरों की तरह खरीदा-बेचा जाने लगा। सामंती दौर में शोषक वर्ग की कुछ औरतों को थोड़ी राहत मिली मगर शोषित-पीड़ित वर्ग की महिलाओं को गुलामी से राहत नहीं मिली। पूँजीवादी दौर में भी धनी वर्ग की थोड़ी सी महिलाओं को थोड़ी सी आजादी मिल पायी मगर शोषित पीड़ित वर्ग की महिलाओं पर अत्याचार बढ़ता ही गया। वे आज भी घरेलू कामों से आजाद नहीं हो सकी हैं।

जहाँ तक भारत की बात है, यहाँ लगभग 95% महिलाएं गुलाम हैं। वे घरेलू कामों में फँसी हुई हैं। इस वजह से उनका व्यक्तित्व विकास नहीं हो पा रहा है। जब तक समाजवादी व्यवस्था लागू नहीं होगी तब तक सभी महिलाओं को न तो सामाजिक उत्पादन के कार्यों में लगाया जा सकेगा, न ही उन्हें घरेलू कार्यों से निजात मिलेगी।

 भारत में अर्धसामन्ती अर्धऔपनिवेशिक व्यवस्था के कारण आज भी 95% महिलाएँ चौका-बर्तन, झाड़ू-पोंछा, बच्चों की परवरिश, घरेलू पशुपालन आदि में फँसी हुई हैं। उन्हें इन कामों के बदले कोई मेहनताना नहीं मिलता। जिससे उनका व्यक्तित्व विकास नहीं हो पा रहा है। अत: अर्धसामन्ती अर्धऔपनिवेशिक व्यवस्था ही उनकी गुलामी का मुख्य कारण है। 

एंगेल्स ने महिलाओं के सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया से दूर होने और घरेलू श्रम के दायरे में सीमित हो जाने को उनके कमज़ोर पड़ने का महत्वपूर्ण कारण माना है। यही वजह है कि एंगेल्स ने घोषणा के स्वर में कहा कि जब तक महिलाओं को सामाजिक उत्पादन के काम से अलग और केवल घर के काम-काज तक ही सीमित रखा जाएगा, तब तक महिलाओं का स्वतंत्रता प्राप्त करना और पुरुषों के समान अधिकार पाना असंभव है और असंभव ही बना रहेगा।

 आज हमारे देश में सबसे ज्यादा पूजापाठ महिलाएँ ही कर रही हैं मगर सबसे ज्यादा महिलाएँ ही सतायी जा रही हैं। अत: पूजापाठ से महिलाओं को आजादी नहीं मिल सकती। उन्हें गुलामी से मुक्ति तभी मिलेगी जब औरतों को सामाजिक उत्पादन के कार्यों में लगा दिया जाएगा और उन्हें पुरुषों के बराबर मेहनताना मिलेगा। यह समाजवादी व्यवस्था के तहत ही संभव है। 

अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक में बहुत कम महिलाओं को बहुत थोड़ी सी आजादी मिल सकती है। समाजवादी अर्थव्यवस्था ही सभी महिलाओं को उनकी योग्यतानुसार सामाजिक उत्पादन के कार्यों में लगा सकती है। अत: एँगेल्स का यह सपना सिर्फ और सिर्फ समाजवादी व्यवस्था में ही पूरा हो सकता है।

 समाजवादी व्यवस्था में लोगों की रुचि और स्वास्थ्य के अनुसार संतुलित आहार होटलों पर बड़े पैमाने पर बनेगा, घरेलू रसोई का काम बहुत कम हो जाएगा और रसोई का अधिकांश काम मशीनों से होगा। घरों में पशु नहीं पाले जाएँगे। हजारों ऐसे-ऐसे विशाल डेयरी उद्योग होंगे जहाँ लाखों की तादात में पशु पाले जायेंगे। दूध दुहने से लेकर पशुओं को चारा खिलाने, पिलाने, सफाई.. आदि काम मशीनों से होता है। इन्हीं डेयरी उद्योगों से पर्याप्त मात्रा में दूध व मांस जनता के लिए सस्ते में उपलब्ध हो जाता है। बालविकास केन्द्रों/ शिशु केन्द्रों में एक्सपर्ट लोगों द्वारा सभी बच्चों की बेहतर देख-रेख होगी। हास्टल युक्त स्कूलों-कालेजों में सभी बच्चों की बेहतर देखभाल के साथ ही उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा भी दी जायेगी। जो महिलाएँ इन कामों में लगाई जाएंगी उन्हें बेहतर तनख्वाह मिलेगी। इस प्रकार समाजवादी व्यवस्था में घरेलू काम का बोझ लगभग खत्म हो जाएगा। महिलाएँ आजाद हो जायेंगी।

 मगर समाजवादी व्यवस्था के लिए मजदूरों किसानों को मिलकर सबसे पहले भारत के कृषि संकट को दूर करना होगा। इसके लिए जोतने वालों को जमीन, कृषि उपज का लाभकारी मूल्य देना होगा; खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि उपकरण, डीजल, पेट्रोल, बिजली, पानी आदि सस्ते में सुलभ कराना होगा।
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