और वो थी " मेहतरानी "

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एक उम्र तक मुझे लगता रहा 
उसका नाम ही " मेहतरानी " है 
जैसे एक थी नाइन माईं 
एक थी धोबिन अम्मा
एक थी बर्तन वाली
और वो थी " मेहतरानी "

मेरे बचपन में 
डलिया और झाड़ू उठाये
वो रोज़ घर आती 
मुँह पर धोती  ( साड़ी ) का छोर टिकाये 
जोर से चिल्लाती 
" राख़ डार देओ "
  घरवाले कहते
" छुइयो मत , दूर रहियो "

हम प्लेट भर राख़ लाते
उससे दूर खड़े हो , फेंककर भाग आते...

वो बाहर राख़ के सहारे
हमारी गन्दगी बटोरती...
और अंदर हम

रगड़कर हाथ धोते...

वैसे - जैसे
वो धोती थी 
ख़ूब रगड़कर 
मोहल्ले का " सामूहिक नल "
जिससे कभी - कभी  नज़र बचाकर 
पानी पी लेती ...

मेहतरानी फिर शाम को आती 
 जोर से चिल्लाती 
" रोटी दे जइयो "
  घरवाले कहते
" छुइयो मत , दूर रहियो "

हम कटोरदान से बासी रोटी लाते
दूर खड़े हो , फेंककर भाग आते...

फ़ेंकी हुयी वो बासी रोटियाँ 
उसकी कमाई थी
जो हमारी गंदगी उठाने के बदले हम उसे देते...
धत्ती ( धरती ) में बैठ
वो बड़े सब्र से एक - एक रोटी
पल्लू में बाँधती...
और अंदर हम

रगड़कर हाथ धोते...

अब - जब जूझती हूँ
हर दिन 
रोटी के लिए
मुझे मेहतरानी याद आती है...

मैं सोचती हूँ 
कितने पाप चढ़ा लिए मैंने
यूँ हाथ धो - धोकर...

और सच कहते थे घरवाले
मुझे उसे छूना नहीं था
बस गले भर लेना था... 

जय मूलनिवासी 

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