*अभी हाल ही में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है।*
दुनिया के बाक़ी हिस्सों में इंसानों की हाइट बढ़ रही है और भारत में घट रही है। चीन और पाकिस्तान ही नहीं बल्कि कई ग़रीब देशों की तुलना में भी भारतीयों की हाइट घट रही है।
शेष दुनिया में जिस तरह इंसान का शरीर बेहतर भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं से सुधर रहा है तो भारत में ऐसा कौनसा रोग फैला है जिसकी वजह से ऊँचाई घट रही है?
ये कोई नया रोग नहीं है, हज़ारों साल पुराना रोग है - कुपोषण, ग़रीबी, जातिवाद और उन सबके ऊपर शाकाहार की बकवास।
एक तो ग़रीबी, ऊपर से सस्ते अंडों और महँगे मांस की अच्छी ख़ासी मात्रा होने के बावजूद लोगों को ये नहीं मिलता।
जो मांसाहारी हैं उनमें से भी अधिकांश इसे हफ़्ते में तीन दिन अफ़ोर्ड नहीं कर सकते।
यूरोप अमेरिका में हर व्यक्ति कम से कम हर रोज़ दिन का एक न एक भोजन मांसाहार का करता है, इसके अलावा डेरी प्रॉडक्ट्स से भी एनिमल प्रोटीन की बड़ी खुराक इंसानों को मिलती है।
लेकिन भारत की बात ही निराली है। दुनिया की सबसे बड़ी जैव विविधता हमारे पास है। इतने सारे विकल्प हैं मांसाहार के। ठीक से पशुपालन किया जाये तो बड़ी संख्या में सस्ता एनिमल प्रोटीन आसानी से उपलब्ध हो सकता है।
लेकिन समस्या प्रबंधन या अर्थशास्त्र की नहीं है। समस्या पाप पुण्य, लोक परलोक, आत्मा और पुनर्जन्म के अंधविश्वास से जुड़ी है।
*बहुत पहले डॉ आंबेडकर जी ने ये सवाल उठाया था।* उन्होंने उस जमाने में उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर सिद्ध किया था कि भारतीय जनसंख्या दुनिया की दूसरी देश की आबादी कि तुलना में कितनी कमजोर है।
शाकाहार के अलावा जाति व्यवस्था द्वारा नियंत्रित शादी और पार्टनर के चुनाव के नियम इस कमजोरी के लिए ज़िम्मेदार हैं।
*डॉ. अंबेडकर ने प्रोफेसर भण्डारकर के हवाले से इस बात का उल्लेख किया है कि* भारतीय जनसंख्या दुनिया की सबसे कमजोर और कुपोषित जनसंख्या है। न सिर्फ शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी।
इसकी जिम्मेदारी *डॉ.अंबेडकर ने सीधे सीधे उन सामाजिक नियमों पर डाली है* जो रक्त शुद्धि और उंच नीच के नाम पर शादियों को नियंत्रित करते हैं, सरल भाषा में कहें तो जाति व्यवस्था और शाकाहार की बकवास ने इस मुल्क को हर तरह से कमजोर किया है।
भारत की गुलामी और मानसिक दिवालियापन सहज ही नहीं आया है, इसे लाया गया है।
*डॉ अंबेडकर जी ने लिखा है कि* भारत की 15 प्रतिशत से अधिक आबादी पुलिस और सेना के काम के योग्य ही नहीं है, ये शारीरिक कुपोषण का सबूत है।
दुनिया भर में विज्ञान और तकनीक सहित साहित्य, दर्शन, कला, खेल, व्यापार इत्यादि में लगातार बना हुआ फिसड्डीपना मानसिक कुपोषण का सबूत है।
भारतीय भोजन को गौर से देखिये, प्रोटीन की खुराक को शाकाहार के नाम पर जान बूझकर गायब किया गया है।
भारतीय भोजन में फेट, कार्बोहाइड्रेट और शक्कर नमक मसालों की भरमार होती है इसीलिये हम दुनिया की डाइबिटीज केपिटल हैं।
हजारों साल से आयुर्वेद सिर्फ दो समस्याओं से जूझ रहा है - कब्ज और नपुंसकता। आयुर्वेद के शास्त्र इनके नुस्खों से भरे पड़े हैं। जैसे कि दुनिया में और कोई बिमारी ही नहीं है।
वैसे ये दो बीमारियां भारतीय समाज की आंतरिक दुर्दशा की ईमानदार तस्वीर भी दिखाती हैं। नया ज्ञान पचता नहीं और अपनी ताक़त से कुछ पैदा होता नहीं।
आज भी छोटे छोटे गांवों में चले जाइए, परम्परा के नाम पर ऐसे अन्धविश्वास हैं कि...
माता का पहला दूध फेंक देना चाहिए, दलितों को घी दूध नहीं खाना चाहिए, मांस तो किसी को नहीं खाना चाहिए, श्रावण मास में दूध नहीं पीना चाहिए या 16 सावन सोमवार पूरे न हों तब तक मांसाहार बन्द रखना चाहिए।
स्त्री को सबसे अंत में बचा खुचा भोजन करना चाहिए इत्यादि।
फिर ऐसे ही नियम विवाह के लिए हैं। रक्तशुद्धि के नाम पर सेक्स व्यवहार में या विवाह के लिए फ्री सिलेक्शन की कोई गुंजाइश ही नहीं।
नतीजा ये कि जींन पूल की क्वालिटी पूरी दुनिया में हर सदी में सुधरती जाती है और हमारे देश में नीचे गिरती जाती है।
जब *डॉ अंबेडकर जाति व्यवस्था को एन्टीनेशनल बताते हैं* तो उसमे ये बात भी शामिल है। ध्यान से नोट कीजिये।