आधुनिक जीवन शैली जीने के लिए अधिक से अधिक पैसे कमाने की धुन लोगों के सिर पर ऐसा सवार है कि उनके व्यक्तित्व से सारे मानवीय गुणों की विदाई हो गई है। लोग इंसानियत के सारे तकाजे, सारे अर्थ और सारे आयाम तिरोहित हो गये हैं।
शुबह से रात तक पैसे के पीछे भागते लोगों की जिंदगी बीत रही है। सोते, जागते, उठते, बेठते या और कहीं भी, सारी बतकही पैसे के इर्दगिर्द ही सिमट के रह गई है। पैसे कमाने की अंधी दौड़ में आदमी नैतिकता, मर्यादा, प्रेम, सौहार्द्र, सहानुभूति और संवेदना की बलि चढ़ा चुका है। घर, परिवार, गाँव, शहर, महानगर से लेकर विदेश यात्रा तक सिर पर पैसा कमाने का भूत सवार रहता है। सारे रिश्ते-नाते, संबंधों, नातेदारी, अपने, पराये, मित्रता और दुश्मनी के सारे मानदंड टूट गये हैं। कब कौन किसके साथ कबतक है, कहना मुश्किल है। रिश्ते घंटे के अनुसार तय हो रहे हैं। बिना पैसे वाले की ओर कोई ताकता भी नहीं। वह दुनिया का सबसे त्याज्य वस्तु बनकर उपेक्षित जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है। पैसा और बाजार के बीच दौड़ लगाते आदमी का दम फुल रहा है। वह बेदम है, हांफ रहा है, क्लांत है, फिर भी दौड़ रहा है। उसकी सबसे बड़ी चिंता यही है कि उसके विश्राम करते ही दूसरे आगे निकल जायेंगे, और वह दौड़ में पीछे रहना चाहता नहीं।
जीवन के इस आपाधापी में लोग पैसे कमाने के लिए झूठ बोलना, बेईमानी करना, चोरी करना, ठगी करना, चापलूसी करना, धोखाधड़ी करना, पैर और गले दबाना, सामने मिश्री और पीछे जहर बनना, खुशामद करना, तलवे सहलाना, नाम बेचना, रिश्ते बेचना, बेटी, बहन और पत्नी बेचना तक शामिल है। किसी भी तरह से पैसे आने चाहिए। संबंधों और रिश्तों की पवित्रता तो कब की खत्म हो चुकी है। घूसखोरी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, दलाली, गुंडई, दबंगई, घोटाला के साथ ही अपना जमीर बेचना भी इसके लिए स्वाभाविक क्रिया मान लिया गया है। गाँव से शहर की ओर, शहर से महानगर की ओर, एक महानगर से दूसरे महानगर और फिर विदेश तक की दौड़ भी इसमें शामिल है। अपना कहने के लिए वही है, जिससे कुछ आर्थिक लाभ हो, अन्यथा लोग पहचानने से भी परहेज करते हैं। खेतीबाड़ी, किसानी, नेता का दलाल, मुखिया और प्रखण्ड का एजेंट, ठेकेदारी, कमीशन एजेंट, फ्राड, घोटाला, नौकरी, रोजगार, मजदुरी, ठेका, ब्लैक मार्केटिंग, चौकीदारी, ठेला और टेम्पु चलाना, नाइट गार्ड, ड्राइवर, मिस्त्री से लेकर दुकानदारी तक कुछ भी बाकी नहीं है, जिससे दो पैसे घर में आये। पुलिस का सिपाही या सेना का जवान की नौकरी भी आज प्रतिष्ठा की पहचान बन गई है। इससे ऊपर जैसे-जैसे पद और जगह बढ़ता जाता है, उसी अनुपात में रुतबा और नाम भी बढ़ता जाता है। अगर आप किसी को छोटी-मोटी नौकरी लगाने के काबिल हैं, तो मत पुछिए, आपकी खातिरदारी दामाद की तरह की जायेगी। जो अच्छे और उच्च पद पर है, पर किसी को नौकरी दिलाने के लायक नहीं है, तो कोई उसको फूटी नजर से भी नहीं देखना चाहता।
क्लर्क में भी अगर आप घूस कमाने वाली जगह पर हैं, तो आपको लोग सलाम करेंगे। खैर, बिना घूस की नौकरी की तो अब कोई कल्पना भी नहीं करता। बैंक में क्लर्क या एकाउंटेंट, मैनेजर, सेल्स टैक्स या मार्केटिंग इन्सपेक्टर, कोर्ट में क्लर्क या पेशकार, आबकारी विभाग में बाबू, और म्युनिसिपेलिटी या कारपोरेशन में अच्छी जगह हैं, तो भी आप समाज में प्रतिष्ठित माने जायेंगे। इससे ऊपर अगर आप राज्य लोकसेवा या केन्द्रीय लोकसेवा के माध्यम से उच्च पदों पर अफसर हैं, या इससे भी ऊपर डीएम, सचिव,एसपी, कमीश्नर, डीआईजी, आईजी, डीजीपी, या फिर अभियंता, डाक्टर और इसी तरह के तकनीकी पदाधिकारी है, कस्टम और दूसरे आमदनी वाले विभाग में उच्च पदों पर आसीन हैं, नेता हैं, विधायक हैं, मंत्री हैं, सांसद है, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं, तब तो कुछ कहना ही नहीं। समझ लीजिये कि आप भगवान के समक्ष हैं।
एक और कैटगरी है, जिसकी इज्जत समाज में परले दर्जे की होती है, और वह है विदेश में अच्छी नौकरी या ऊंचे पेकेज पर किसी बहुराष्ट्रीय निगमों या कंपनियों में मैनेजर या मुख्य कार्यपालक अधिकारी जैसे पद, जिसका अभी भारत में डंका बज रहा। माँ-बाप को तो जैसे कारु का खजाना ही मिल गया हो। अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, अस्ट्रेलिया, सिंगापुर, चीन और जापान जैसे उन्नत और विकसित देशों में अच्छे पैकेज पर काम कर रहे कमासूत पुत्र के कारण माँ, बाप और दूसरे रिश्तेदार भी अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इसी श्रेणी में बड़े तस्कर, दलाल, ठेकेदार और माफिया गिरोह के लोग भी हैं, जिनके लिए पैसा हाथ का मैल है। पैसा वे फेंकते चलते हैं। भले ही जीवन के इस आपाधापी में चैन और सुकून छीन गया हो, सारे रिश्ते खत्म हो गये हों, मानवीय मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और संवेदनाओं का गला रेत दिया गया हो, पर पैसे की आंच सब दोष हर लेती है। पैसा, पैसा और हाय पैसा, यही हमारे जीवन का आदर्श, प्रेरणा, यथार्थ और नियति बन गया है। यहाँ तक कि हम इंसानियत भी भूल गए हैं। कहीं भी चैन नहीं, कहीं भी सुकून नहीं और न ही कहीं मनमाफिक जीने का अवसर। बस भागे जा रहे हैं पैसे के पीछे-पीछे। पता भी नहीं है कि हम कहाँ तक और कितनी दूर जायेंगे। इस भागदौड़ में हम साहित्य, संगीत, दर्शन, इतिहास और अन्य कलात्मक गतिविधियों से भी दूर हो गये हैं।
जय मूलनिवासी
@Nayak1