मैंने सुना है, अरस्तु एक दिन सागर के किनारे टहलने गया और उसने देखा एक पागल आदमी—पागल ही होगा, अन्यथा ऐसा काम क्यों करता—
एक गड्डा खोद लिया है रेत में और एक चम्मच लिए हुए है; दौड़कर जाता है, सागर से चम्मच भरता है, आकर गडुए में डालता है, फिर भागता है, फिर चम्मच भरता है, फिर गडुए में डालता है।
अरस्तु घूमता रहा, घूमता रहा, फिर उसकी जिज्ञासा बढ़ी, फिर उसे अपने को रोकना संभव नहीं हुआ—सज्जन आदमी था,
एकदम से किसी के काम में बाधा नहीं डालना चाहता था, किसी से पूछना भी तो ठीक नहीं, अपरिचित आदमी से, यह भी तो एक तरह का दूसरे की सीमा का अतिक्रमण है।
मगर फिर बात बहुत बढ़ गई, उसकी भागदौड़, इतनी जिज्ञासा भर गई कि यह मामला क्या है, यह कर क्या रहा है, पूछा कि मेरे भाई, करते क्या हो?
उसने कहा, क्या करता हूं;सागर को उलीच कर रहूंगा! इस गड्डे में न भर दिया तो मेरा नाम नहीं! अरस्तु ने कहा कि मैं तो कोई बीच मे आने वाला नहीं हूं मैं कौन हूं;जो बीच में कुछ कहूं;लेकिन यह बात बड़े पागलपन की है यह चम्मच से तू इतना बड़ा विराट सागर खाली कर लेगा!
जन्म—जन्म लग जाएंगे फिर भी न होगा, सदियां बीत जाएंगी फिर भी न होगा! और इस छोटे से गडुए में भर लेगा?
और वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा, और उसने कहा कि तुम क्या सोचते हो, तुम कुछ अन्य कर रहे हो, तुम कुछ भिन्न कर रहे हो?
तुम इस छोटी सी खोपड़ी में कुदरत को समाना चाहते हो? अरस्तू बड़ा विचारक था। तुम इस छोटी सी खोपड़ी में अगर कुदरत को समा लोगे, तो मेरा यह गड्डा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ा है और सागर कुदरत से छोटा है?; पागल कौन है?
अरस्तू ने इस घटना का उल्लेख किया है और उसने लिखा है कि उस दिन मुझे पता चला कि पागल मैं ही हूं। उस पागल ने मुझ पर बड़ी कृपा की। वह कौन आदमी रहा होगा? वह आदमी जरूर एक पहुंचा हुआ फकीर रहा होगा, समाधिस्थ रहा होगा, वह सिर्फ अरस्तू को जगाने के लिए, अरस्तू को चेताने के लिए उस उपक्रम को किया था।
नहीं, तुम्हारी चाह तो छोटी है—चाय की चम्मच—इस चाह से तुम समाधि को नहीं पा सकोगे। चाह को जाने दो। और फिर जल्दीबाजी मचा रहे हो! जल्दबाजी मे तो चम्मच में थोड़ा—बहुत पानी आया, वह भी गिर जाएगा—अगर ज्यादा भागदौड़ की तो, और ज्यादा जल्दबाजी की। तुमने देखा न, कभी कभी जल्दबाजी में यह हो जाता है, ऊपर की बटन नीचे लग जाती है, नीचे की बटन ऊपर लग जाती है;सूटकेस में सामान रखना था वह बाहर ही रहा जाता है, सूटकेस बंद कर दिया, फिर उसको खोला तो चाबी नहीं चलती, कि चाबी अटक जाती है। तुमने जल्दबाजी में देखा, स्टेशन पहुंच गए और टिकट घर ही रह गई। और बड़ी जल्दी की!
जितनी जल्दबाजी करते हो, उतने ही अशांत हो जाते हो। जितने अशांत हो जाते हो, उतनी संभावना कम है समाधि की। शांत हो रहो। और शांत होने की कला है अचाह से भर जाना। चाहो ही मत, मांगो ही मत; कहो कि जो जब होना है, होगा, हम प्रतीक्षा करेंगे। जल्दी भी क्या है? समय अनंत है।
साधु.. 🙏🙏
जय मूलनिवासी