गांधी के आजादी के आन्दोलन से डेमॉक्रसी नहीं बल्कि ब्राह्मणॉक्रसी आएगी - पेरियार ई. बी. रामासामी

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यह विषय कि "वाल्मीकि जातियों एवं अन्य अति पिछड़ी अनुसूचित जातियों को 55 साल की आजादी में धोखेबाजी के अलावा कुछ नहीं मिला।" इस विषय को अगर हम ६ यान से देखें तो इससे दो मुख्य सवाल हमारे सामने आते हैं।
 जिनमें से एक सवाल यह है कि इन जातियों को 55 वर्ष की आजादी में ध् गोखेबाजी के सिवाय कुछ नहीं मिला और दूसरा सवाल मैं उठा रहा हूँ कि क्या इन 55 वर्षों की आजादी से पूर्व भी इनको धोखेबाजी के अलावा कुछ और मिला ? मैं यह कहना चाहता हूँ कि इन 55 वर्षों में तो इन्हें धोखेबाजी के सिवाय कुछ मिला ही नहीं मगर इन 55 वर्षों से पूर्व भी इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कारण इनको सिर्फ धोखेबाजी ही मिली।
मैं आपको इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बारे में एक विशेष बात बताना चाहता हूँ कि इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने मूलनिवासी बहुजनों को हजारों जातियों- उपजातियों में बाँटा है। लेकिन एक विशेष बात यह है कि जिसे हम वाल्मीकि जाति कहते हैं या पूरे भारत में सफाई का धन्धा करने वाली जातियाँ कहते हैं। जितने नाम इस सफाई का धन्धा करने वाली जाति के लोगों को दिये गये हैं उतने नाम भारत में आर्य ब्राह्मणों ने किसी भी अन्य जाति को नहीं दिये। कहीं हेला, चूहड़ा तो कहीं भंगी आदि नाम दिये। जो गांधीवादी समाजशास्त्री हैं वे 'भंगी' शब्द का अर्थ "भाँग पीने वाला" ऐसा बताते हैं। वे लिखते हैं कि भंगी नाम इन जातियों का इसलिए पड़ा क्योंकि ये भाँग ज्यादा पीते हैं। मगर यदि हम सिन्धु सभ्यता को देखें और श्रमण संस्कृति को देखें तो कोई भी भारत का मूलनिवासी उस समय किसी प्रकार का नशा नहीं करता था। यही कारण था कि आर्य-ब्राह्मणों ने उनको असुर नाम दिया। क्योंकि 'सुर' या 'सुरा' का अर्थ है "शराब" अर्थात् जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करते वे 'असुर' जो करते हैं वे 'सुर'। इस प्रकार हम देखते हैं कि गांधीवादी समाजशास्त्री ब्राह्मणों ने धोखेबाजी भरी व्याख्या की। यदि भाँग पीने के कारण भंगी कहा गया तो मथुरा, हरिद्वार और काशी के पण्डे-पुजारी (ब्राह्मण) सबसे ज्यादा भाँग पीते थे और आज भी पीते हैं तो उन्हें भंगी क्यों नहीं कहा गया?
जब अप्रैल 2002 में मूलनिवासी वाल्मीकि जाति मुक्ति सम्मेलन जालंधर (पंजाब) में हुआ तो वहाँ पर भंगी जाति के एक व्यक्ति जिनका नाम भागमल पागल है, उन्होंने उस कार्यक्रम में बताया कि एक बार बाबा साहेब डॉ० अम्बेडकर जालंधर आये तो उसने बाबा साहेब के उस कार्यक्रम में मंच संचालन किया था और उस कार्यक्रम के दौरान भागमल पागल ने बाबा साहेब से मंच पर ही एक सवाल पूछा कि क्या वाल्मीकि जाति कभी भारत की शासक जाति बनेगी या बन सकेगी? तो बाबा साहब ने जवाब दिया था कि भागमल पागल क्या वास्तव में ही पागल हो गये हो?क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी एक जाति अकेले के दम पर शासक नहीं बन सकती है।
इसका उदाहरण स्वयं आर्य-ब्राह्मण हैं। उन्होंने (ब्राह्मणों ने) दो अन्य वर्णों क्षत्रिय और वैश्य को अपने साथ रखा तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उन्होंने हिन्दू के नाम पर लोगों को इक्ट्ठा किया और देश के हुक्मरान बन गये। उन्होंने कभी भी अकेले ब्राह्मण जाति के नाम पर शासन करने की नहीं सोची। यह बात सत्य है कि यदि भंगी जाति अन्य मूलनिवासी जातियों के साथ मिलकर अपनी आजादी की लड़ाई शुरु नहीं करती है तो वह कभी भी अपनी आजादी की लड़ाई जीत नहीं सकती।

सफाई कार्य करने वाली मूलनिवासी जातियों के साथ अगर भूतकाल में भी धोखेबाजी हुई तो इसका मुख्य कारण ब्राह्मणवादी व्यवस्था है तथा ब्राह्मणों के धर्मशास्त्र हैं। कौटिल्य (चाणक्य) हलवाई का धन्धा छोड़कर अर्थशास्त्री बना। उसने लिखा कि यदि किसी झाडू लगाने वाले अर्थात् सफाई का कार्य करने वाली जाति के व्यक्ति को झाडू या सफाई कार्य करते-करते अगर कहीं सोना या अशरफी मिल जाये तो उस सफाई कार्य करने वाले व्यक्ति को केवल उसका सोलहवां हिस्सा ही अपने पास रखना चाहिए। उस समय लोकतंत्र नहीं था और इन मूलनिवासी जातियों के साथ उस समय धोखेबाजी हो रही थी तो ये सफाई कार्य करने वाली मूलनिवासी जातियाँ ब्राह्मणवादी व्यवस्था से संघर्ष करती थीं। सन् 1894 में कर्नल सैलीमैन ने 'अवध में बगावत' अर्थात् 'अवध में गड़बड' ('Rambling in Avadh') नाम की एक किताब लिखी। अवध जिसे आज लखनऊ कहते हैं। उस समय इन सफाई कार्य करने वाली मूलनिवासी जातियों ने इतनी हड़तालें व विद्रोह किये कि पूरा लखनऊ (अवध) अस्त-व्यस्त हो गया। यही कारण था कि अंग्रेजों को इस पर किताब लिखनी पड़ी।जब की आर्य -ब्राह्मणों के धर्मशास्त्रों में प्रत्यक्ष रुप से लिखा हुआ था और जो आज भी लिखा हुआ है कि मूलनिवासी जातियों पर अत्याचार करो तब भी हमारे लोगों में संघर्ष करने की हिम्मत थी और वे संघर्ष करते थे। जब सफाई कार्य करने वाली इन जातियों को चूहड़ा कहा जाता था तो ये इस शब्द का विरोध करते थे और संघर्ष करने के लिए मैदान में उतर जाते थे।
सन् 1873 में दित नाम का चूहड़ा सियालकोट में ब्राह्मणवादी व्यवस्था से दुःखी होकर ईसाई बनता है। चूहड़ा शब्द यहाँ इसलिए है क्योंकि उस समय तक वाल्मीकि शब्द अस्तित्व में ही नहीं था। यह दित नाम का चूहड़ा सियालकोट में एक पादरी से जाकर कहता है कि मुझे ईसाई बनाइये। यह तब की बात है जबकि लोकतंत्र नहीं था मगर फिर भी ये सफाई कार्य करने वाली मूलनिवासी जातियाँ इस ब्राह्मणवादी गैर बराबरी की व्यवस्था से विद्रोह करती थीं, संघर्ष करती थीं।
मैं छोटा था मेरी माँ भी सफाई का कार्य करती थी, सिर पर मैला उठाती थी तो जब उस समय किसी ब्राह्मण के घर लड़का पैदा होता था तो मेरी माँ तीर-कमान लेकर जाती थी। मैंने अपनी माँ से पूछा था कि माँ, तुम ब्राह्मणों के घर ये तीर-कमान लेकर क्यों जाती हो? तो वह बताती है कि बेटा ये ब्राह्मण समझते हैं कि एक समय हम बहुत बहादुर थे। मैंने अपनी माँ को कहा कि जब ये बहादुरी का प्रतीक है तो हम इसे ब्राह्मणों को क्यों जाकर देते हैं। यह बात आजादी के बाद की है क्योंकि मैं सन् 1947 के बाद पैदा हुआ।
उस वक्त अत्याचार के खिलाफ लोग बगावत पर उतर आते थे। आज क्या स्थिति है? आज यह स्थिति है कि हमें इस बात को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाकर उस पर चर्चा करनी पड़ रही है। अत्याचारों के विरुद्ध बगावत होती थी। आज भी उन दिनों की कई बातें मेरे स्मरण में हैं। मुझे याद है, जब मैं छोटा था उस वक्त की बात है। उस वक्त डॉ॰ राजदान नामक व्यक्ति अमृतसर में मेडिकल हेल्थ ऑफिसर था। हमारे पिताजी बताते थे कि वह घोड़े पर बैठा हुआ होता था और हमारे लोगों को चाबुक से मारता था। लोगों को गुस्सा आता था कि - एक तो यह हमें चूहड़ा कहता है और ऊपर से - चाबुक से मारता है। उसके इस व्यवहार के विरुद्ध बहुत बड़ा संघर्ष खड़ा हुआ। जैसे ही इन सफाई कर्मचारियों ने संघर्ष शुरु किया, बगावत की, उस वक्त इन सफाई कर्मचारियों के नेताओ के शरीर पर उबलता हुआ पानी डाला गया।
मा० डी० डी० कल्याणी ने उपरोक्त संदर्भ में आगे कहा कि इससे मैं क्या बताना चाहता हूँ? इससे मैं यह बताना चाहता हूँ कि जब भारत में लोकतंत्र नहीं था तब हमारे लोग अपने ऊपर होने वाले अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए, बगावत करने के लिए खड़े होते थे जबकि लोकतंत्र नहीं था और धर्मशास्त्र हमें सरेआम गाली-गलौच करते थे। क्या आज हम अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए खड़े नहीं हो सकते? ऐसी हमारे अन्दर क्या कमजोरी आ गयी है? जरुरत है दुश्मन और दोस्त की सही पहचान करने की और एकजुट होकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की।
हमें आज ये सब जो नाम दिये गये हैं ये नाम हमने स्वयं अपनी इच्छा से या चाँव से नहीं रखे हैं। आज हमारे लोग खुश हो जाते हैं कि 'अरे भाई आज हमारा नाम भंगी या चूहड़ा से बदलकर वाल्मीकि रख दिया गया है, यह तो बहुत अच्छा है।' मगर हमारे लोग यह नहीं जानते कि यह सब हमारे अंदर का विद्रोह खत्म करने की रणनीति का हिस्सा है। यह केवल भंगी/चुहड़ा जातियों के बारे में ही नहीं है बल्कि यह अन्य जातियों के बारे में भी है। नाई जाति को आज राजा कहा जाता है और कुम्हार को कहा जाता है कि यह प्रजापति है। ऐसा कहने से क्या नाई के हाथों की कैंची, उस्तरा छूट गया है? ऐसा कहने से क्या कुम्हार का काम खत्म हो गया है? वह आज भी गधे पर बैठता है और गधे पर मिट्टी ढ़ोकर मिट्टी के बर्तन बनाता है। पंजाब में भी इसी तरह से वाल्मीकि जाति के लोगों को "चौधरी साहब' कहा जाता है, यह आमतौर पर रिवाज है। ऐसा कहने वालों के दिमाग में क्या बसा हुआ है? चौधरी साहब कहने वाले के दिमाग में यही बसा हुआ है कि चौधरी का मतलब चूहड़ा है। वह इस 'चौधरी'- शब्द का उच्चारण आदर से नहीं करता बल्कि - उसके मन में घृणा है, वह घृणा से चौधरी कहता है। ये सभी नाम जो आज हमें दिये जा रहे हैं,ये षड्यंत्रपूर्वक दिये जा रहे हैं और घृणा - से ही दिये जा रहे हैं। इसके ये कुछ उदाहरण हैं। एक तरफ ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मण को तीर-कमान दो तो वही दूसरी तरफ ब्राह्मण कहता है कि यदि सुबह-सुबह कोई भंगी दिख जाए तो वह शुभ होता है और यदि उसके हाथ में झाडू या सिर पर टट्टी या पैखाना से भरा टोकरा हो तो यह महाशुभ होता है। अरे, अगर भारत का मूलनिवासी झाडू ही लगाता रहे और गलियों व नालियों में ही जीवन खोता रहे तो - आर्य-ब्राह्मणों के लिए तो यह शुभ है ही। एक - ओर तो ब्राह्मण कहते हैं कि तुम्हारे पूर्वज राजा- महाराजा थे वहीं दूसरी ओर हम देखें और - अपने पूर्वजों से उनके बारे में सुनें तो वे कहते - हैं कि जब कभी कोई जानवर मर जाता था तो - हमारे घरों में उस दिन ईद हो जाती थी। उस मरे जानवर को खाने के लिए चाकू छूरे लेकर दौड़ पड़ते थे। एक तरफ गिद्ध और कुत्ते उस मरे जानवर को खा रहे हैं और दूसरी तरफ ये इन्सान पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ब्राह्मण इस हालत को देखकर खुश होता था, अपने मन में संतोष महसूस करता था कि तुमने ब्राह्मणी व्यवस्था को चुनौती दी, आर्य-ब्राह्मणों के विरुद्ध बगावत की, इसीलिए यह दण्ड भुगतो।
सन् 1947 के बाद अंग्रेजों से भारत आजाद हो गया। लोगों ने सोचा कि शायद अब उनकी हालत बदल जायेगी। मगर ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैं एक शादी में गया था। वहाँ एक पी०सी०एस० अधि ाकारी जो कि आई० ए० एस० की तैयारी में लगे हैं, उसने मुझसे पूछा कि क्या हमारा भी कुछ होगा? मैंने उससे कहा कि आप निराश क्यों हैं। हालत बदलेगी नहीं बल्कि हमको बदलनी पड़ेगी। बदलने के लिए प्रयास करने होंगे।
जब गांधी और कांग्रेस पर हमारे लोगों ने विश्वास किया तो हालात और भी बिगड़ गये। हमने 6 अक्टूबर 2002 को "खामोश दास्तान" प्रदर्शनी अमृतसर में लगाई जिसमें एक सफाई कर्मचारी झाडू लिए खड़ा है और साथ ही नीचे फोटो में बच्चा भी झाडू लिए खड़ा है। तो इस फोटो को हमारे ही कुछ लोगों ने उस इलाके में फाड़ दिया। हमारे कुछ अन्य लोगों ने उन फोटो फाड़ने वालों से पूछा कि भाई तुमने यह फोटो क्यों फाड़ा? उन्होंने जवाब दिया कि इतनी बुरी हालत का प्रदर्शन यूँ खुले आम नहीं करना चाहिए। आज गरीब अपने आप को गरीब नहीं दर्शाना चाहता। मूलनिवासी सफाई कार्य करने वाली जातियाँ लाचार और बेबस हैं। मगर अपनी लाचारी व वेबसी का इजहार करने से भी डरती हैं। उनके साथ जो धोखेबाजी हो रही है, वे उस धोखेबाजी को भी समझने को तैयार नहीं हैं। हमारी माताएं-बहनें सुबह ही घर से निकलती हैं। मैला टट्टी सिर पर ढ़ोती हैं, गलियों में भटकती हैं, मगर तब हमें ग्लानि नहीं होती, मन में विद्रोह नहीं होता, गुस्सा नहीं आता, लोगों में गैरत नहीं जागती। ऐसा क्यों है यह गंभीर चिंतन का विषय है।
गांधी कहता था कि अगर मेरा अगला जन्म हो तो वह भंगी जाति में हो। ऐसा कहकर गांधी भंगी जाति के लोगों को एक पतनकारी एवं दुष्टता भरा संदेश देना चाहता था कि तुम जो कर रहे हो वह घृणा का कार्य नहीं है बल्कि परोपकार का कार्य है। बाबा साहेब ने गांधी के इस परोपकारी सिद्धान्त को चुनौती दी और कहा कि यदि सफाई कार्य परोपकार का कार्य है तो यह कार्य अगड़ी-ब्राह्मणी जातियों को करना चाहिए। इससे परोपकार भी हो जायेगा, पैसे भी मिलेंगे, रोटी भी मिलेगी। गांधी ने मीठी-मीठी बातें करके सफाई कार्य करने की सलाह दी तथा आने वाली पीढ़ियों को भी परोपकार का सिद्धान्त बताकर गुलामी के अंधेरों में धकेल दिया। गांधी की वजह से ही भंगी जातियाँ ज्यादा गुलाम हुई।
बिहार का 'बिन्देश्वरी पाठक' नाम का ब्राह्मण लेख लिखता है कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने सफाई कार्य करने वाली जातियों के लिए कुछ नहीं किया। इस पाठक ने शुलभ शौचालय के नाम से पूरे भारत में टट्टी की इन्डस्ट्री खड़ी कर दी। बिन्देश्वरी पाठक लिखता है कि मैला उठाने की प्रथा खत्म हो गई है। मगर वास्तविकता कुछ और ही है। नेशनल हयूमैन राईट्स कमिशन भी हमें गुमराह कर रहा है। देश में सीवर सिस्टम को शुरु हुए 120 - वर्ष हो गये हैं और यह अब तक केवल 232 शहरों तक ही पहुँच पाया है यानी कि 120 वर्ष में मात्र 232 शहर। यदि इसी स्पीड से यह सीवर सिस्टम लागू हुआ तो पूरे देश में इसको लाने के लिए लगभग 2400 साल लगेंगे। शहरों में 1 करोड़ 15 लाख लैट्रिन हैं जो सीवर सिस्टम से जुड़ी नहीं हैं। गाँव का तो जिक्र ही करना व्यर्थ है। उनकी पहुँच तो इससे काफी दूर है। इस सिस्टम को लागू करने पर मात्र 15 हजार करोड़ रु० का खर्च है। यह बहुत ज्यादा नहीं है मगर वे ऐसा करना ही नहीं चाहते। सरिता पत्रिका में यह पूरा सर्वेक्षण दिया गया है और पूरी धोखेबाजी का ब्यौरा दिया है। आजादी से पहले सफाई कर्मचारियों की रेगूलर सीधी भर्ती की जाती थी, उनको पूरा वेतन मिलता था। मगर अब मोहल्ला सुधार कमेटी बनी हुई है और 1200 रुपये पर एक सफाई सेवक को रखा जाता है और किसी भी सफाई कर्मचारी के बच्चे की फीस माफ नहीं हो सकती। किस तरह से वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकता है? ये खुली गुलामी लादी जा रही है, धोखेबाजी हो रही है। हमें इस गुलामी व धोखेबाजी का एहसास होना चाहिए तभी हम इसके समाधान के लिए आगे कदम बढ़ा सकते हैं। बिन्देश्वरी पाठक कहता है कि मैंने सरकार को पत्र लिखा है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भंगी जाति के लोगों के साथ बैठकर एक दिन रोटी खानी चाहिए। इससे इनकी इज्जत बढ़ेगी। बिन्देश्वरी पाठक कहता है कि यह दुःख की बात है कि मुझे ऐसी प्रार्थना किए 5 वर्ष हो गये हैं मगर न तो प्रधानमंत्री ने उत्तर दिया है और न ही राष्ट्रपति ने। यदि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एक बार हम भंगी जाति के लोगों के घर आकर रोटी खा लेंगे तो क्या हमारी हालत बदल जायेगी? क्या हमारी इज्जत बढ़ जायेगी? वास्तव में कुछ भी नहीं बदलेगा। अगर भगवान भी आकर इनके घर में रोटी खायेगा तो उसे भी अछूत कहा जायेगा। वाल्मीकि जिसको कि हमारे लोग गुरु मानते हैं जो कि ब्राह्मण था, वह भी अछूत हो गया। गांधी अगर अछूतों में पैदा होता तो किसी गंदी नाली में ही पड़ा-पड़ा दम तोड़ देता।
बामसेफ के प्रचार का असर न हो इसके विरुद्ध भी कार्य चल रहा है। पंजाब में विधानसभा के लिए चुनाव हुआ, हमारे क्षेत्र में दो उम्मीदवार खड़े थे एक क्षत्रिय था, एक ब्राह्मण। हमारी एक महिला ने कहा कि मेरी यह दृटी की टोकरी है जो इसको अपने सिर पर उठा लेगा मैं उसको ही वोट दे दूँगी। ब्राह्मण ने झट से वह टोकरी अपने सिर पर उठा ली और वह औरत इतनी सी बात से खुश हो गयी। वह यह नहीं समझ सकी कि ब्राह्मण कितने शातिर हैं। वे देश में अपने शासन को बनाये रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। घटिया से घटिया हथकंडें वे अपना सकते हैं। जिसने सिर पर टट्टी की टोकरी उठाई वह ब्राह्मण ही रहा और न केवल ब्राह्मण रहा बल्कि एम०एल०ए० बना, फिर मंत्री बना। मगर हमारी उस भंगी औरत की जीवन- शैली में कोई परिवर्तन नहीं आया।
आज से सात साल पहले पंजाब में संत वाल्मीकि फिल्म आयी। उसमें संत वाल्मीकि को डाकू के रुप में दिखाया तो हंगामा हो गया। पंजाब के अन्दर कर्फ्यू जैसी स्थिति हो गई। हमारे ही कुछ लोगों ने मुझे कहा कि देखो कल्याणी जी वाल्मीकि जाति में कितनी यूनिटी (एकता) हो गई है। मैंने उनको बताया कि तुम ब्राह्मणों द्वारा दिया गया कार्य कर रहे हो। प्रशासन व पुलिस भी दुकाने बंद कराने में साथ दे रही थी। ब्राह्मण जानते थे कि यदि वाल्मीकि की फिल्म को हटा भी दिया जायेगा तो भी इस जाति की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। हकीकत यह थी कि ब्राह्मणों ने वाल्मीकि जाति के लोग प्रतिक्रिया करें इसलिए ही यह क्रिया की। ब्राह्मण आजकल महसूस कर रहे हैं कि इन सफाई कार्य करने वाली भंगी जातियों की श्रृद्धा रामायण से घट रही है तो ब्राह्मणों ने योग विशिष्ठ नाम की नई धोखेबाजी शुरु कर दी। योग विशिष्ठ को लोग उठाकर मन्दिरों व घरों में ले जा रहे हैं और कहते हैं कि यह हमारी धार्मिक किताब है। यह पंजाब में अब नया ढकोसला ब्राह्मणों द्वारा शुरु किया गया है। वाल्मीकि जाति के जो नेता हैं, वे कहते हैं कि हम तो राजनेता हैं। परन्तु वे राजनेता का अर्थ भी नहीं समझते। वे सिर्फ नेता हैं राज से तो उनका दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं है। राज तो दुश्मन कर रहा है। हमारे नेता थाने से हमारे एक आदमी को भी नहीं छुड़वा सकते। उसके लिए भी वे किसी शर्मा-वर्मा को ढूढ़ते हैं। ये नेता (Leader) नहीं बल्कि दिशाहीन नेता (Misleader) हैं। ब्राह्मण समझने लगे हैं कि सफाई कार्य करने वाली जातियों के सिर से गांधी का भूत अब धीरे-धीरे उतर रहा है। इसलिए अब वे नये छल-प्रपंच कर रहे हैं। मोहल्ला संगरा, जालन्धर (पंजाब) में वाल्मीकि के मन्दिर में एक नया नाटक हुआ। कोई प्रवीण कुमार अरोडा रिक्शा से मन्दिर के सामने से जा रहा था तो वह कहता है कि वाल्मीकि की आँखों से मैंने ज्योति निकलती देखी और यह ज्योति लगभग 10 मिनट तक रही। यह बात पूरे पंजाब में फैलाई गई और पूरे पंजाब में एकदम गीत-भजन गाने शुरु हो गये। हमारे पढ़े-लिखे लोग गीत गा रहे थे। वो गीत गा-गा कर कह रहे थे कि वाल्मीकि ने आँखें खोली हैं तो मैंने कहा कि भाई तुम कब आँखें खोलोगे। वाल्मीकि ने आँखें खोलीं, चलो हम मान लेते हैं मगर तुम कब आँखें खोलोगे। तुम्हारी माँ- बहनें तो आज भी सिर पर मैला ढ़ोती हैं, गलियों में जीवन व्यतीत करती हैं। ग्रेजुएट लड़के गीत गाते हुए अपने सिरों पर रामायण ढ़ोते हैं। ब्राह्मणों को भली-भाँति मालूम है कि फूले-अम्बेडकर की विचारधारा गांधीवाद और ब्राह्मणवाद का खात्मा कर देगी। इसीलिए वे नये-नये ड्रामें कर रहे हैं।
हमारी हालत मात्र एल० पी० जी० की वजह से ही खराब नहीं है बल्कि यहाँ पर ब्राह्मणवादी शासकों की नीयत ठीक नहीं है, यह मुख्य कारण है। सन् 1996 में पंजाब केसरी में एक - लेख आया कि चार पीढ़ियाँ बीत गई मगर वेतन अब भी तीन रुपये बारह पैसे। हमारी भंगी जाति की छोटी रानी नाम की महिला को आज भी दिया जाता है जो कि सिसौली के राजकीय विद्यालय में कार्य कर रही है। उससे बहुत बड़े स्कूल के परिसर तथा स्कूल के छः सात कमरों की भी सफाई करायी जाती है। चार पीढ़ी पहले भी तीन रुपये बारह पैसे और आज भी वही वेतन 50 वर्ष की आजादी के बाद भी। गधा वजन ढोये जा रहा है और सोच रहा है कि शायद कुम्हार तरस खायेगा। मगर वह और वजन लादता रहता है। दुःख की बात यह है कि जिनके साथ धोखेबाजी हो रही है उनको इस धोखेबाजी के बाद भी समझ नहीं आ रही है। अब ब्राह्मण इस धोखेबाजी की कवायद को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। फरवरी 2003 में लंदन से हमारे सफाई कार्य करने वाली जाति के लोगों की एक टीम आ रही है, उनका मुझे भी फोन आया था। वे कह रहे थे कि हम पटियाला, जालन्धर, लुधियाना, अमृतसर, चंडीगढ़ में सेमिनार करने जा रहे हैं। मैंने उनसे पूछा कि सेमिनार किस विषय पर करना चाहते हो तो उन्होंने बताया कि रामतीर्थ के अन्दर जो धूना साहब है, वह हमारे कब्जे में नहीं है, वह हमारे कब्जे में होना चाहिए। मैंने उस साथी से पूछा कि क्या धूना साहब हासिल करना ही हम सफाई कार्य करने वाली जातियों का लक्ष्य है? उसने जवाब दिया कि हाँ, हमारा यही लक्ष्य है।मैंने उससे पुनः पूछा कि यदि है।साहब हमें मिल भी गये तो क्या हमारी समस्याएं हल हो जायेंगी? क्या हम इस देश के हुक्मरान बन जायेंगे। फिर वह कहने लगा कि यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं था। ये साजिश हमारे विदेश में बैठे साथियों के साथ रची जा रही है और वे भी झाँसे में आ जाते हैं। ऐसे अर्थहीन कार्यक्रम होते हैं। गीत-भजन गाये जाते हैं। किसी कांग्रेस या भाजपा के नेता को बुलाया जाता है। वे गीत गाते है कि 'गम जिसने दिये हैं वही गम दूर करेगा।' पर इनको मालूम नहीं है कि उन्होंने गम दिये ही इसलिए हैं कि तुम रोते रहो, तड़पते रहो। वे क्या बेवकूफ हैं कि तुम्हारे गम दूर करेंगे। ब्राह्मण हमारी समस्याओं का समाधान बिल्कुल नहीं करेंगे। दुश्मन से वफादारी की आशा मत रखो। वे हमारी समस्याओं का समाधान बिल्कुल नहीं करेंगे। धोखेबाजी से बचो। जो पूर्व में धोखेबाजी हुई उसको ध्यान में रखो। जो हो रही हैं उससे बचो तथा आम मूलनिवासी बहुजन समाज को भी इन आर्य-ब्राह्मणों की नित नई धोखेबाजियों व षड्यंत्रों से बचाओ क्योंकि यह हम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों का कर्त्तव्य है। हम फूले-अम्बेडकर के सिपाही हैं। हमें अपनी कर्त्तव्य रुपी लड़ाई लड़नी होगी। तभी हम अपनी गुलामी से मुक्ति पा सकते हैं।

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