अच्छा किया बौद्ध चीनी यात्रियों ने कि बौद्ध - स्थलों के बारे में रत्ती - रत्ती लिख दिया .... दूरी नाप दिया.... दिशा बता दिया....वरना एलेक्जेंडर कनिंघम को कुछ पता नहीं चलता।

0
🌺श्रावस्ती की खोज।🌺

अच्छा किया बौद्ध चीनी यात्रियों ने कि बौद्ध - स्थलों के बारे में रत्ती - रत्ती लिख दिया .... दूरी नाप दिया.... दिशा बता दिया....वरना एलेक्जेंडर कनिंघम को कुछ पता नहीं चलता।

एलेक्जेंडर कनिंघम चीनी यात्रियों को पढ़ते गए.... दूरी और दिशा देखते गए .....श्रावस्ती की खुदाई कराते गए।

एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1863 में श्रावस्ती की पहचान की ....बताया कि अभी का सहेत - महेत ही श्रावस्ती है....निशाना सही था.....एक साल तक खुदाई कराई और गंध कुटी मिल गई।

फाहियान ने लिखा है कि गंध कुटी के आसपास सदाबहार वृक्षों के वन थे....रंग - बिरंगे फूल खिले थे ....गंध के मारे वातावरण महमह था...इसीलिए वह गंध कुटी थी।

जेतवन के ठीक बीचों - बीच गंध कुटी थी.....गंध कुटी में बुद्ध का आवास था....यहीं बुद्ध सबसे अधिक रहे....यहीं बुद्ध सबसे अधिक बोले भी थे।

फाहियान ने बताया है कि यहीं बुद्ध सबसे अधिक 25 वर्षावास बिताए थे... यहीं बुद्ध सबसे अधिक 844 सुत्तों का देशना दिए थे।

जेतवन के भीतर अनाथपिंडिक ने भिक्खुओं के लिए विश्राम - गृह भी बनवाए थे ....विहार नं. 19 के ध्यान - कक्ष से नींव में दबा हुआ एक ताम्रपत्र मिला है..... ताम्रपत्र ध्यान - कक्ष के उत्तर- पश्चिमी कोने से मिला है.....जेतवन लिखा है।

ताम्रपत्र ने साफ कर दिया कि असली जेतवन यहीं है....धुंध साफ हुई वरना जेतवन कहाँ - कहाँ खोजा जा रहा था।

ताम्रपत्र सवा दो फीट ऊँची मिट्टी के एक संदूक में था....ताम्रपत्र 18 इंच लंबा,14 इंच ऊँचा और चौथाई इंच मोटा है....27 पंक्तियाँ लिखी हुई हैं।

यह ताम्रपत्र गहड़वाल नरेश गोविंदचद्र का है....नरेश की मुहर लगी है....वाराणसी से जारी किया गया है ....ताम्रपत्र पर संवत् 1186 आषाढ़ पूर्णिमा दिन सोमवार अंकित है।

याद कीजिए कि आषाढ़ पूर्णिमा कौन - सा दिन है.....वहीं गुरु पूर्णिमा....इसी दिन बुद्ध ने सारनाथ में पहली बार गुरुपद से ज्ञान दिया था ...इस दिन गुरु को सम्मानित किया जाता है।

ठीक इसी गुरु पूर्णिमा के दिन राजा गोविंदचद्र ने जेतवन के भिक्खु संघ को गुरु मानते हुए 6 गाँवों की आय दान में दिए थे....गुरु पूर्णिमा का इतिहास इससे पता चलता है।

कौन थे गोविंदचद्र .... वहीं राजा जयचंद्र के दादा....वहीं राजा जयचंद्र जिसे भारतवासी हिकारत से गद्दार कहते हैं, जिनके बाप - दादों ने बौद्ध धम्म की भरपूर सेवा की।

खुद जयचंद्र ने भी बौद्ध धम्म की अनेक सेवाएँ दी.....बोध गया से प्राप्त अभिलेख इसकी पुष्टि करता है।

अनाथपिंडिक का ऐतिहासिक शिल्पांकन!

अनाथपिंडिक श्रावस्ती के प्रसिद्ध व्यापारी तथा पूँजीपति थे। बचपन का नाम सुदत्त था। राजगीर में ससुराल थी। यहीं वे गौतम बुद्ध से प्रभावित हुए थे। प्रभावित भी ऐसे हुए कि तथागत को ठहरने के लिए श्रावस्ती में उन्होंने राजकुमार जेत से जेतवन की जमीन पर करोड़ों स्वर्ण मुद्राएँ बिछाकर उसे खरीद लिए और भव्य महाविहार बनवाए।

फाहियान ने जेतवन महाविहार का वर्णन करते हुए लिखा है कि जेतवन विहार सात तले का था। विहार के पूरबी दरवाजे पर पत्थर के बने दो धम्म स्तंभ खड़े हैं। एक पर धम्म चक्र और दूसरे पर बैल की आकृति बनी हुई है। विहार के दाएँ - बाएँ निर्मल जल से भरे सरोवर हैं और सदाबहार पेड़ों के वन हैं, जिनमें रंग - बिरंगे फूल खिले हैं।

ह्वेनसांग ने जेतवन विहार के पूरबी दरवाजे पर खड़े दोनों प्रस्तर - स्तंभों की ऊँचाई 70 फीट बताई है और लिखा है कि ये दोनों प्रस्तर - स्तंभ सम्राट अशोक ने बनवाए हैं। श्रावस्ती का नाम ह्वेनसांग ने शलोफुशीटी और फाहियान ने शी - वेई लिखा है।

साहित्यिक साक्ष्य बताते हैं कि गौतम बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक वर्षावास कुल मिलाकर 25 वर्षावास यहीं बिताए थे। सबसे अधिक यहीं बोले भी थे। जेतवन विहार इसीलिए बौद्धों के लिए खास है।

जेतवन विहार कब बना होगा? साहित्यिक प्रमाण से पता चलता है कि तथागत ने जेतवन विहार में प्रथम वर्षावास बोधि के 14 वें वर्ष में किए थे। यदि बुद्ध का जन्म - वर्ष 563 ई. पू. में मान लिया जाए तो उन्हें 35 वर्ष की उम्र में बोधि की प्राप्ति हुई थी तो बोधि - वर्ष 528 ई. पू. होगा। फिर यदि वे 14 वें वर्ष में जेतवन विहार में प्रथम वर्षावास किए, तब जेतवन विहार का निर्माण- काल 514 - 513 ई. पू. होगा।

अनाथपिंडिक द्वारा जेतवन की खरीद का शिल्पांकन भरहुत स्तूप पर उत्कीर्ण है। शिल्पांकन के ठीक नीचे धम्म लिपि में लिखा है - " जेतवन अनाथपेडिको देति कोटि संथतेन केता"। मतलब कि खरीददार अनाथपिंडिक करोड़ों ( स्वर्ण - मुद्राएँ ) बिछाकर जेतवन अर्पित करते हैं।

शिल्पांकित पटल पर हाथों में जल - पात्र लिए जो जेतवन को अर्पित करने के लिए खड़े हैं, वे अनाथपिंडिक हैं। बैलगाड़ी पर लादकर स्वर्ण - मुद्राएँ जेतवन की जमीन पर बिछाने के लिए आई हैं। बैलों की नाक में नाथने की रस्सी लगी है। कंधों से जुए को हटा लिया गया है। बैलों से जोती हुई गाड़ी खुल चुकी है।

बैलगाड़ी के पीछे से एक आदमी स्वर्ण - मुद्राएँ उतार रहा है। जो स्वर्ण - मुद्राएँ गाड़ी से पहले उतार ली गई हैं, उन्हें दो आदमी जेतवन की जमीन पर बिछा रहे हैं। शर्त थी कि जेतवन की जमीन उसे बिकेगी, जो इसे स्वर्ण - मुद्राओं से ढक देगा और अनाथपिंडिक ने बुद्ध के लिए यह चुनौती स्वीकार कर ली थी।

2200 सौ साल पहले का जो बैलगाड़ी का उत्कीर्णन है, वह अभी हाल तक की बनी बैलगाड़ी की बनावट से मेल खाती है। आश्चर्य इस बात की है कि इतने बड़े पूँजीपति के आवास के निकट ही अंगुलिमाल का भी आवास था। ह्वेनसांग ने लिखा है कि सुदत्त के मकान के निकट अंगुलिमाल का वह स्थान था, जहाँ वे बौद्ध हुए थे। खुदाई में भी सुदत्त और अंगुलिमाल के स्थलों के बीच की दूरी कोई 50 मीटर ही है।

( तस्वीरें गंध कुटी और जेतवन विहार की हैं। )
💐सनातन संस्कृति💐 जय मूलनिवासी ✍️

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)
To Top