मेरी मां, जिनकी उम्र अब 68 के पार है, हर सुबह अपनी पुरानी कुर्सी पर बैठती हैं। उनके हाथ में कॉफी का प्याला होता है, और आंखों में एक खामोशी। मैंने उनसे पूछा, "मां, कहीं आते-जाते क्यों नहीं?" उन्होंने कहा, "डायबिटीज ज्यादा है, बीपी बढ़ता है। सोचती हूं कहीं जाऊंगी, कहीं गिर गई तो? अकेले कहीं चल-फिर नहीं सकते। दवा लाना हो तो भी सोचना पड़ता है कि किसे कहें?" उनकी बात सुनकर मेरा दिल भर आया।
पिछले हफ्ते मुझे उनकी अलमारी में एक पुरानी पासबुक मिली, जिस पर धूल जमी थी। वह मेरे पिता की थी, जो सालों पहले गुजर गए। पासबुक में लिखा था - "बैलेंस: 22,87,450 रुपये।" मैं चौंक गई। मां को इसके बारे में कुछ नहीं पता था, या शायद वह भूल गई थीं।
मां के घुटनों में दर्द रहता है। बैंक का नाम सुनते ही वह कहती हैं, "कौन ले जाएगा मुझे? तुम लोग तो बीजी हो... हम चारों चार दिशाओं में।" हम भाई-बहन अपनी जिंदगी में इतने उलझे थे कि कभी पूछा ही नहीं। मां भी कभी नहीं बताती थीं। एक दिन मैंने उनसे पूछा, "मां, क्या आपके पास कोई पुराना खाता है?" वह हंसकर बोलीं, "अब क्या करना है उसका? मेरे मरने के बाद सब आप भाई-बहनों का ही तो है। बैंक में कौन लूट ले जाएगा?" लेकिन उनकी आंखों में एक चमक थी, जैसे कुछ याद आ रहा हो।
मैंने पासबुक उठाई और बैंक की वेबसाइट पर चेक किया। आधार लिंक था, और पता चला कि वह खाता अब भी सक्रिय था। ब्याज मिलाकर राशि 23 लाख के करीब हो गई थी। मैंने मां को बताया। उनकी आंखें नम हो गईं। "यह तुम्हारे पिताजी की मेहनत थी। मैं इसे भूल गई थी," उन्होंने कहा। लेकिन फिर वह चुप हो गईं। "अब याद भी कहां रहता है," उन्होंने धीरे से कहा। मुझे बाद में पता चला कि वह डरती थीं कि अगर हम बच्चों को बताया, तो शायद कोई इसे लेने की कोशिश करेगा या आपस में लड़ाई होगी। यह उनकी मजबूरी थी।
मैंने बैंक जाने का प्लान बनाया।
मैं उन्हें लेकर गई। मैनेजर ने बताया कि ऐसे लाखों खाते हैं। हाल ही में एक खबर पढ़ी कि बैंकों में बिना दावे के पड़े खातों में 78 हजार करोड़ रुपये जमा हैं। यह आंकड़ा 2019-20 से 2024-25 (31 दिसंबर 2024 तक) का है, और यह सिर्फ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) को दी गई जानकारी है। असल राशि इससे भी ज्यादा हो सकती है। इसमें से 4,500 हजार करोड़ रुपये डिपॉजिटर एजुकेशन एंड अवेयरनेस फंड (DEAF) में ट्रांसफर किए गए हैं। मैनेजर ने बताया कि अगर 10 साल तक खाते में कोई लेन-देन नहीं होता, तो वह राशि DEAF फंड में चली जाती है।
78 हजार करोड़ रुपये! यह आंकड़ा सुनकर मैं सन्न रह गई। मेरी मां की तरह कितने ही बुजुर्ग होंगे, जो अपनी मेहनत को भूल गए या बैंक तक पहुंच नहीं पाते। कुछ शारीरिक कमजोरी के कारण, कुछ इसलिए कि उन्हें लगता है उनके अपने ही उनका पैसा हड़प लेंगे। मां या बुजुर्गों को लगता है कि बैंक में पड़ा पैसा कौन हड़प लेगा, लेकिन यहां तो खुलम-खुल्ला डकैती है। सरकार की ओर से SMS, फोन, या नोटिस भेजकर यह कहना चाहिए कि "यह आपके पैसे हैं, आप या आपके संबंधी लें," मगर ऐसा कुछ न करके सीधा DEAF फंड में ट्रांसफर करना एक धोखा है।
मां की पासबुक देखकर मुझे एहसास हुआ कि यह सिर्फ पैसा नहीं, उनकी जिंदगी का एक हिस्सा है जो खामोश पड़ा था। मैंने सोचा, क्या हर बुजुर्ग के पास कोई ऐसा नहीं होना चाहिए जो उनकी मदद करे? क्या बैंकों को घर तक सेवा नहीं देनी चाहिए? उनके ब्याज से मेडिकल हेल्प देनी नहीं चाहिए? क्या हम बच्चों को अपने माता-पिता के खातों की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? आधार लिंक है, फिर भी यह 78 हजार करोड़ रुपये उनके पास क्यों नहीं पहुंच रहा?
यह सिर्फ मेरी मां की कहानी नहीं, उन लाखों लोगों की कहानी है, जिनकी मेहनत बैंकों में धूल खा रही है। अपने घर के बुजुर्गों से पूछें। उनकी पासबुक देखें। शायद उनकी मेहनत का कोई हिस्सा अब भी इंतजार कर रहा हो। मेरे पिता जी और उनकी पासबुक मेरे लिए अब सिर्फ एक फोटो नहीं, एक सबक है। चाहे लोग कुछ भी कहें, यह मेरे मां-बाप की मेहनत की सच्चाई है।
मैं एक प्रचारक हूं, और यह मेरा फर्ज है कि यह सच्चाई आप तक पहुंचे। अपनी पासबुक चेक करें, अपने बुजुर्गों की मदद करें।
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