एक औरत ने मछली का कारोबार शुरू करने का इरादा बनाया, तो दुकान के लिए एक बोर्ड बनवाया जिस पर लिखा था:
"यहाँ मीठे पानी की ताज़ा मछली बेची जाती है"।
बोर्ड बन कर आया तो कुछ दोस्तों को मदद के लिए बुलाया कि साथ मिलकर भारी भरकम बोर्ड दुकान के ऊपर टांगा जा सके। एक दोस्त ने बोर्ड पढ़ा तो पूछा तुम्हारी इस कारोबार की कोई और ब्रांच भी है?
जी नहीं।
तो फिर "यहाँ" का लफ़्ज़ ज़्यादा है। अब बोर्ड इस तरह हो गया:
मीठे पानी की ताज़ा मछली बेची जाती है।
दूसरे दोस्त ने पूछा: क्या इस इलाक़े में मीठे पानी के अलावा खारा पानी भी होता है?
जी नहीं।
तो फिर "मीठे पानी" का लफ़्ज़ ज़्यादा है।
अब बोर्ड इस तरह हो गया: ताज़ा मछली बेची जाती है।
एक और दोस्त ने पूछा: क्या बसी हुई मछली भी बेचोगे?
जी नहीं।
तो फिर "ताज़ा" लिखने की क्या ज़रूरत है, यह लफ़्ज़ ज़्यादा है।
अब बोर्ड इस तरह हो गया: मछली बेची जाती है।
एक और दोस्त ने पूछा: मछली मुफ़्त भी दोगे क्या?
जी नहीं।
तो फिर "बेची" का लफ़्ज़ ज़्यादा है। अब बोर्ड इस तरह हो गया: मछली होती है।
एक दाना दोस्त बोले: मछली के अलावा भी कुछ बेचोगे?
जी नहीं।
तो फिर "मछली" का लफ़्ज़ ज़्यादा है।
अब बोर्ड इस तरह हो गया: होती है।
अब सब ने मिलकर ग़ौर किया तो इस बोर्ड का कुछ मतलब समझ नहीं आया, इसलिए बोर्ड को ज़्यादा करार देकर बाहर फेंक दिया गया।
बिल्कुल इसी तरह हम भी जब कोई काम करते हैं तो मशवरा देने वाले और नुक़्स निकालने वाले बहुत से मिलते हैं, मगर हमें चाहिए सिर्फ़ वही काम करें जो हमें बेहतर और अच्छा लगे...